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अध्याय 6 ध्यानयोग [श्लोक 26 से 47]

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श्लोक26

 

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌।

ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है, उस-उस विषय से रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमात्मा में ही निरुद्ध करे।

 

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श्लोक 27

 

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्‌।

उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्‌॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शांत है, जो पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शांत हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानन्दघन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनंद प्राप्त होता है।

 

 

 

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श्लोक 28

 

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः।

सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

वह पापरहित योगी इस प्रकार निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति रूप अनन्त आनंद का अनुभव करता है

 

 

 

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श्लोक 29

 

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।

ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

सर्वत्र समान भाव वाला और योग से युक्त आत्मा वाला योगी आत्मा को सभी भूतो में स्थिर और सभी भूतो को आत्मा में (अर्थात् अत्यंत अभेद) देखता है।

 

 

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श्लोक 30

 

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत  देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।

 

 

 

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श्लोक 31

 

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।

 सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

जो पुरुष एकीभाव में स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है।

 

 

 

::::::::::::::राधे कृष्णा::::::::::::::::::::राधे श्याम:::::::::::::::::

 

श्लोक 32

 

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

 सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

हे अर्जुन! जो योगी अपनी भाँति (जैसे मनुष्य अपने मस्तक, हाथ, पैर और गुदादि के साथ ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और म्लेच्छादिकों का-सा बर्ताव करता हुआ भी उनमें आत्मभाव अर्थात अपनापन समान होने से सुख और दुःख को समान ही देखता है, वैसे ही सब भूतों में देखना 'अपनी भाँति' सम देखना है।) सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।

 

 

 

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श्लोक 33

 

अर्जुन उवाच

 योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।

 एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्‌॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! जो यह योग आपने समभाव से कहा है, मन के चंचल होने से मैं इसकी नित्य स्थिति को नहीं देखता हूँ।

 

 

 

 

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श्लोक 34

 

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्‌।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

क्योंकि हे श्रीकृष्ण! यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है। इसलिए उसको वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ।

 

 

 

 

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श्लोक 35

 

श्रीभगवानुवाच

 असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु हे कुंतीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है।

 

 

 

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श्लोक 36

 

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।

वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में किए हुए मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन से उसका प्राप्त होना सहज है- यह मेरा मत है।

 

 

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श्लोक 37

 

अर्जुन उवाच

अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।

 अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

अर्जुन बोले- हे श्रीकृष्ण! जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किन्तु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अन्तकाल में योग से विचलित हो गया है, ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात भगवत्साक्षात्कार को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है।

 

 

 

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श्लोक 38

 

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।

अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि॥

 

हिंदी अनुवाद_। 

 

हे महाबाहो! क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादल की भाँति दोनों ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता?

 

 

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श्लोक 39

 

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।

त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

हे श्रीकृष्ण! मेरे इस संशय को सम्पूर्ण रूप से छेदन करने के लिए आप ही योग्य हैं क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशय का छेदन करने वाला मिलना संभव नहीं है।

 

 

 

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श्लोक 40

 

श्रीभगवानुवाच

 

 पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।

न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

श्री भगवान बोले- हे पार्थ! उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में ही क्योंकि हे प्यारे! आत्मोद्धार के लिए अर्थात भगवत्प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता।

 

 

 

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श्लोक 41

 

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।

 शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को अर्थात स्वर्गादि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरुषों के घर में जन्म लेता है।

 

 

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श्लोक 42

 

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्‌।

 एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्‌॥।

 

हिंदी अनुवाद_

 

अथवा वैराग्यवान पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेता है, परन्तु इस प्रकार का जो यह जन्म है, सो संसार में निःसंदेह अत्यन्त दुर्लभ है।

 

 

 

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श्लोक 43

 

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्‌।

 यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

वहाँ उस पहले शरीर में संग्रह किए हुए बुद्धि-संयोग को अर्थात समबुद्धिरूप योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनन्दन! उसके प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्तिरूप सिद्धि के लिए पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है।

 

 

 

 

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श्लोक 44

 

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।

 जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

वह (यहाँ 'वह' शब्द से श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट पुरुष समझना चाहिए।) श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट पराधीन हुआ भी उस पहले के अभ्यास से ही निःसंदेह भगवान की ओर आकर्षित किया जाता है तथा समबुद्धि रूप योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए सकाम कर्मों के फल को उल्लंघन कर जाता है।

 

 

 

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श्लोक 45

 

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।

अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो यात परां गतिम्‌॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

परन्तु प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी तो पिछले अनेक जन्मों के संस्कारबल से इसी जन्म में संसिद्ध होकर सम्पूर्ण पापों से रहित हो फिर तत्काल ही परमगति को प्राप्त हो जाता है।

 

 

 

 

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श्लोक 46

 

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है। इससे हे अर्जुन! तू योगी हो जाओ।

 

 

 

 

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।श्लोक 47

 

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।

श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमें लगे हुए अन्तरात्मा से मुझको निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है।

 

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कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णा 

 

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 ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयमयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः ।