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अध्याय 15 पुरुषोत्तम योग ♥♥♦ श्लोक 7 से 20 ♠♣

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श्लोक 7

 

श्रीभगवानुवाच

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।

मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।

 

हिंदी अनुवाद_

 

इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है (जैसे विभागरहित स्थित हुआ भी महाकाश घटों में पृथक-पृथक की भाँति प्रतीत होता है, वैसे ही सब भूतों में एकीरूप से स्थित हुआ भी परमात्मा पृथक-पृथक की भाँति प्रतीत होता है, इसी से देह में स्थित जीवात्मा को भगवान ने अपना 'सनातन अंश' कहा है) और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है।

 

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श्लोक 8

 

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।

गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादिका स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है, उससे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है- उसमें जाता है।

 

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श्लोक 9

 

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।

अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके -अर्थात इन सबके सहारे से ही विषयों का सेवन करता है।

 

राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे 

 

श्लोक 9

 

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।

अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके -अर्थात इन सबके सहारे से ही विषयों का सेवन करता है।

 

राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे 

 

श्लोक 10

 

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्‌।

विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

शरीर को छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को अथवा विषयों को भोगते हुए को इस प्रकार तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते, केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले विवेकशील ज्ञानी ही तत्त्व से जानते हैं।

 

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श्लोक 11

 

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्‌।

यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥

 

हिंदी अनुवाद_

यत्न करने वाले योगीजन भी अपने हृदय में स्थित इस आत्मा को तत्त्व से जानते हैं, किन्तु जिन्होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं जानते।

 

राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे 

 

श्लोक 12

 

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्‌।

यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

।सूर्य में स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और जो अग्नि में है- उसको तू मेरा ही तेज जान।

 

राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे 

 

श्लोक 13

 

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।

पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूँ और रसस्वरूप अर्थात अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण ओषधियों को अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ।

 

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श्लोक 14

 

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।

प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित रहने वाला प्राण और अपान से संयुक्त वैश्वानर अग्नि रूप होकर चार (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य, ऐसे चार प्रकार के अन्न होते हैं, उनमें जो चबाकर खाया जाता है, वह 'भक्ष्य' है- जैसे रोटी आदि। जो निगला जाता है, वह 'भोज्य' है- जैसे दूध आदि तथा जो चाटा जाता है, वह 'लेह्य' है- जैसे चटनी आदि और जो चूसा जाता है, वह 'चोष्य' है- जैसे ईख आदि) प्रकार के अन्न को पचाता हूँ।

 

राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे 

 

श्लोक 15

 

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टोमत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।

वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्योवेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामी रूप से स्थित हूँ तथा मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (विचार द्वारा बुद्धि में रहने वाले संशय, विपर्यय आदि दोषों को हटाने का नाम 'अपोहन' है) होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने योग्य (सर्व वेदों का तात्पर्य परमेश्वर को जानने का है, इसलिए सब वेदों द्वारा 'जानने के योग्य' एक परमेश्वर ही है) हूँ तथा वेदान्त का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ।

 

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श्लोक 16

 

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।

क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

 हे अर्जुन! संसार में दो प्रकार के ही जीव होते हैं एक नाशवान (क्षर) और दूसरे अविनाशी (अक्षर), इनमें समस्त जीवों के शरीर तो नाशवान होते हैं और समस्त जीवों की आत्मा को अविनाशी कहा जाता है৷৷

 

राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे 

 

श्लोक 17

 

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।

यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

इन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा- इस प्रकार कहा गया है।

 

राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे 

 

श्लोक 18

 

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

क्योंकि मैं नाशवान जड़वर्ग- क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूँ और अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूँ, इसलिए लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ।

 

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श्लोक 19

 

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्‌।

स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

भारत! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्त्व से पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है।

 

राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे 

 

श्लोक 20

 

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।

एतद्‍बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्त्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।

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राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे 

श्रीकृष्णा श्रीकृष्णा श्रीकृष्णा श्रीकृष्णा श्रीकृष्णा श्रीकृष्णा श्रीकृष्णा श्रीकृष्णा श्रीकृष्णा श्रीकृष्णा श्रीकृष्णा श्रीकृष्णा श्रीकृष्णा श्रीकृष्णा श्रीकृष्णा श्रीकृष्णा श्रीकृष्णा श्रीकृष्णा 

 

 

 

 

 

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुन संवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥

 

भावार्थ : इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में पुरुषोत्तम-योग नाम का पंद्रहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥