महादेव का मन अब पूरी तरह से आध्यात्मिकता की ओर मुड़ चुका था। गंगा के प्रति आकर्षण को उसने अपनी साधना के जरिए धीरे-धीरे शांत करने की कोशिश की। अब उसका पूरा ध्यान उस एक लक्ष्य पर था—आत्मज्ञान की प्राप्ति। गाँव का जीवन उसे और भी अधिक बोझिल लगने लगा था। उसे महसूस होता कि अगर उसे अपनी खोज पूरी करनी है, तो उसे इस भौतिक संसार को छोड़कर कहीं दूर जाना होगा, जहाँ वह खुद को पूरी तरह से खोज सके।
एक दिन, महादेव ने घर छोड़ने का निर्णय लिया। वह जानता था कि इस यात्रा के लिए उसे अपने परिवार और गाँव के लोगों से दूर होना पड़ेगा। उसने अपनी माँ से विदा ली। माँ की आँखों में आँसू थे, पर उन्होंने महादेव के निर्णय का सम्मान किया। महादेव के मन में एक अजीब सी शांति थी। उसे ऐसा लग रहा था कि वह सही राह पर चल पड़ा है।
महादेव ने अपनी यात्रा की शुरुआत हिमालय की ओर की। उसने सुना था कि वहाँ कई ऋषि-मुनि ध्यान और साधना में लीन रहते हैं और आत्मज्ञान की प्राप्ति कर चुके हैं। वह भी उनकी तरह आत्मज्ञान पाना चाहता था। उसकी यह यात्रा आसान नहीं थी। पहाड़ों की कठिन राहें, ठंड, भूख—यह सब उसकी परीक्षा ले रहे थे। लेकिन महादेव का संकल्प दृढ़ था।
रास्ते में उसे कई साधु और सन्यासी मिले, जो विभिन्न तीर्थस्थलों की ओर जा रहे थे। महादेव ने उनसे बातचीत की, उनके अनुभवों को सुना। लेकिन उसे कहीं भी वह उत्तर नहीं मिला जिसकी उसे तलाश थी। वह सोचता, "क्या आत्मज्ञान का कोई एक निश्चित मार्ग है? या हर किसी की अपनी-अपनी यात्रा होती है?"
महादेव एक दिन एक गुफा में रहने वाले एक वृद्ध साधु से मिला। साधु का नाम श्रीकांत था। श्रीकांत ने कई वर्षों तक तपस्या की थी और वह शांतचित्त थे। महादेव ने उनसे अपने मन की बात साझा की। श्रीकांत ने कहा, "आत्मज्ञान की खोज एकांत में नहीं, बल्कि स्वयं के भीतर होती है। यह कोई गुफा या मंदिर में नहीं मिलेगा, बल्कि तुम्हारे अंदर ही इसका बीज छिपा है।"
महादेव ने उनके शब्दों को गंभीरता से लिया। उसने गंगा किनारे एक शांत स्थान पर अपना आसन जमाया और ध्यान में लीन हो गया। दिन-रात की परवाह किए बिना, वह साधना करता रहा। उसकी साधना के दौरान, उसके मन में विचारों का ज्वार उमड़ता, लेकिन वह उन्हें एक-एक कर शांत करता गया। उसे समझ में आने लगा था कि उसके मन के भीतर ही उसकी सारी समस्याओं का समाधान छिपा है।
धीरे-धीरे, महादेव को अपने भीतर एक अजीब सी शांति महसूस होने लगी। वह उस स्थिति में पहुँच गया था, जहाँ विचारों का कोई महत्व नहीं था। उसे एहसास हुआ कि आत्मज्ञान किसी बाहरी वस्तु से प्राप्त नहीं होता, बल्कि यह मन की गहराई में छिपा एक सत्य है।
महादेव का यह अनुभव उसकी आत्मा की गहराइयों को स्पर्श कर गया। उसने अपने भीतर के अज्ञान को जलाकर एक नई रोशनी का अनुभव किया। उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे वह उस अनजाने सत्य के करीब पहुँच चुका है जिसकी उसे वर्षों से तलाश थी।
लेकिन यह यात्रा यहीं समाप्त नहीं हुई। महादेव ने जाना कि आत्मज्ञान एक स्थायी स्थिति नहीं है, बल्कि यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। यह यात्रा कभी समाप्त नहीं होती, और इसे आत्मसात करना जीवनभर का कार्य है।