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सनातन गंगा

सनातन धर्म शाश्वत नियम है. जीवन के कुछ खास तत्व या बुनियादी पहलू हैं जो हमेशा लागू होंगे. सनातन धर्म का मतलब है कि हमारे पास इस बात की अंतर्दृष्टि है कि जीवन हमेशा कैसे कार्य करत सनातन धर्म शब्द का आज आम तौर पर गलत इस्तेमाल होता है. यह एक गलतफहमी है कि धर्म का मतलब मजहब होता है. धर्म का मतलब मजहब नहीं है, इसका मतलब नियम होता है. इसीलिए हम विभिन्न प्रकार के धर्मों की बात कर रहे हैं - गृहस्थ धर्म, स्व-धर्म और विभिन्न दूसरे किस्म के धर्म. मुख्य रूप से, धर्म का मतलब कुछ खास नियम होते हैं जो हमारे लिए इस अस्तित्व में कार्य करने के लिए प्रासंगिक हैं। आज, इक्कीसवीं सदी में, चीजों को संभव बनाने के लिए आपको अंग्रेजी जाननी होती है. यह एक सापेक्ष चीज है. हो सकता है कि पांच सौ से हजार सालों में, ये कोई दूसरी भाषा हो सकती है. हजार साल पहले ये एक अलग भाषा थी. वो आज के धर्म हैं - वो बदलते रहते हैं. लेकिन सनातन धर्म शाश्वत नियम है. जीवन के कुछ खास तत्व या बुनियादी पहलू हैं जो हमेशा लागू होंगे. सनातन धर्म का मतलब है कि हमारे पास इस बात की अंतर्दृष्टि है कि जीवन हमेशा कैसे कार्य करता है। कुछ दिन पहले मुझसे पूछा गया कि हम सनातन धर्म की रक्षा कैसे करें? वैसे, क्या सनातन धर्म को सुरक्षा की जरूरत है? नहीं, क्योंकि अगर वह शाश्वत है, तो मैं और आप उसकी सुरक्षा करने वाले कौन होते हैं? लेकिन इस सनातन धर्म तक कैसे पहुंचें और इन नियमों के जानकार कैसे हों, और उसे अपने जीवन में कैसे लागू करें. इन पहलुओं के बारे में आज की भाषा में, आज की शैली में, और आज के तरीके में बताए जाने की जरूरत है, ताकि यह इस पीढ़ी के लोगों को आकर्षक लगे. वे इसे इसलिए नहीं अपनाने वाले हैं क्योंकि आप इसे कीमती बता रहे हैं. आप इसे उनके दिमाग में नहीं घुसा सकते. आपको उन्हें इसकी कीमत का एहसास दिलाना होगा, आपको उन्हें यह दिखाना होगा कि यह कैसे कार्य करता है. सिर्फ तभी वे इसे अपनाएंगे. सनातन धर्म को सुरक्षा की जरूरत नहीं है. इसे जिए जाने की जरूरत है, इसे हमारी जीवनशैली के जरिए हम सब के अंदर जीवित रहना चाहिए. अगर हम ऐसा नहीं करते, तो इसकी रक्षा करने से ये अलग-थलग हो जाएगा। सनातन धर्म को मुख्य धारा में लाना ही मेरा प्रयास है. बिना धर्म शब्द को बोले, मैं इसे लोगों के जीवन में ला रहा हूंं, क्योंकि अगर इसे जीवित रहना है तो इसे मुख्य धारा बनना होगा. एक बड़ी आबादी को इसे अपनाना होगा. अगर बस थोड़े से लोग इसे अपनाते हैं और यह सोचते हैं कि वे बेहतर जानते हैं, और वे हर किसी से ऊंचे हैं, तो यह बहुत ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहेगा. हम इस संस्कृति के सबसे कीमती पहलू को, इस मायने में मार देंगे कि धरती पर यही एक संस्कृति है जहां उच्च्तम लक्ष्य मुक्ति है. हम स्वर्ग जाने की या भगवान की गोद में बैठने की योजना नहीं बना रहे हैं. हमारा लक्ष्य मुक्ति है, क्योंकि आप जो हैं, अगर आप उसके अंतरतम में गहरे खोजते हैं, तो आप समझेंगे कि इससे फर्क नहीं पड़ता कि यह चाहे सुख हो, ज्ञान हो, प्रेम हो, रिश्ते हों, दौलत हो, ताकत हो, या प्रसिद्धि हो, एक मुकाम पर आप इनसे ऊब जाएंगे. जो चीज सचमुच मायने रखती है वो आजादी है, और इसीलिए यह संस्कृति महत्वपूर्ण है - बस आज के लिए ही नहीं, बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए भी। अतीत में लोग सनातन धर्म के लिए वाकई तैयार नहीं थे, क्योंकि हर पीढ़ी में सिवाय कुछ लोगों के, बड़े पैमाने पर कोई बौद्धिक विकास नहीं था. तभी तो वे कभी यह नहीं समझ सके कि आजाद होने का क्या मतलब होता है, उन्होंने सिर्फ सुरक्षा खोजी. अगर आप धरती पर सारी प्रार्थनाओं पर गौर करें, तो उनमें से नब्बे प्रतिशत सिर्फ इस बारे में हैं - ‘मुझे यह दीजिए, मुझे वह दीजिए, मुझे बचाइए, मेरी रक्षा कीजिए!’ ये प्रार्थनाएं मुक्ति के बारे में नहीं हैं, वे जीवन-संरक्षण के बारे में हैं। लेकिन आज, मानव बुद्धि इस तरह से विकास कर रही है कि कोई भी चीज जो तर्कसंगत नहीं है, वो दुनिया में नहीं चलेगी. लोगों के मन में स्वर्ग ढह रहे हैं, तो ये आश्वासन कि ‘मैं तुम्हें स्वर्ग ले जाऊंगा,’ काम नहीं करने वाला है. अब कोई भी स्वर्ग नहीं जाना चाहता.  सनातन धर्म के लिए यह सही समय है. यही एकमात्र संस्कृति है जिसने मानवीय प्रणाली पर इतनी गहाराई से गौर किया है कि अगर आप इसे दुनिया के सामने ठीक से प्रस्तुत करें, तो ये दुनिया का भविष्य होगी. सिर्फ यही चीज है जो एक विकसित बुद्धि को आकर्षित करेगी, क्योंकि ये कोई विश्वास प्रणाली नहीं है. यह खुशहाली का, जीने का और खुद को आजाद करने का एक विज्ञान और टेक्नालॉजी है. तो सनातन धर्म कोई अतीत की चीज नहीं है. यह हमारी परंपरा नहीं है. यह हमारा भविष्य है।

Nilmani · Realista
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परब्रह्म की कामना

परब्रह्म की सृष्टिकामना और गोलोक का प्राकट्य!!!!!!!

'सृष्टि के पूर्व केवल मैं-ही-मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनों का कारण अज्ञान। जहां यह सृष्टि नहीं है, वहां मैं-ही-मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ।' (श्रीमद्भागवत २।९।३२)

अव्यक्त से व्यक्त होना, एक से अनेक होना, निराकार से साकार होना, सूक्ष्म का स्थूल होना सृष्टि है। वे स्वयं ही अपने-आपकी, अपने-आप में, अपने-आप से ही सृष्टि करते हैं। वे ही स्रष्टा, सृज्य और सृष्टि हैं। उनके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है। सृष्टि को अनादि माना जाता है। सृष्टि के बाद प्रलय और प्रलय के बाद सृष्टि–यह परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। विभिन्न कल्पों में सृष्टि वर्णन में भी भिन्नता पाई जाती है। कभी आकाश से, कभी तेज से, कभी जल से और कभी प्रकृति से सृष्टि की उत्पत्ति होती है। रजोगुण की प्रधानता से सृष्टि होती है और तमोगुण की प्रधानता से प्रलय होता है।

परमात्मा की सृष्टिकामना

वेद ने परमात्मा को 'आप्तकाम' (पूर्णकाम) कहा है अर्थात् वह कभी कोई कामना नहीं करता परन्तु बहुत-सी ऐसी श्रुतियां हैं जिनसे ज्ञात होता है कि परमात्मा ने सृष्टि की कामना की। तप के बिना सृष्टि संभव नहीं है। इसलिए तैत्तिरीयोपनिषद् (२।६) में कहा गया है कि ब्रह्म ने केवल कामना ही नहीं की, उस कामना की सिद्धि के लिए तप किया।

परमब्रह्म परमात्मा की जब रमण करने की अभिलाषा हुई, तब 'एकाकी न रमते, द्वितीयमैच्छते' इस श्रुति वाक्य से अकेले रमण न कर सकने पर दूसरे की इच्छा हुई। दूसरा कोई न होने पर 'एकोऽहं बहुस्याम' इस श्रुति से परमात्मा ने स्वयं बहुविध होने की इच्छा की। वेद ने एक बहुत सुन्दर दृष्टान्त से सृष्टिरूपी लीला को समझाया है। जैसे शान्त समुद्र जब खेलने की इच्छा करता है, तब अपने को अनेक तरंगों, बर्फों, बुदबुदों और फेनों के रूप में अभिव्यक्त कर लेता है। एक ओर बुलबुलों के साथ आँख-मिचौनी का खेल खेलता है तो दूसरी ओर फेनों के साथ हास-परिहास का। उमंग में भरकर लहरों को अपने में लिपटा लेता है, बर्फों को कभी अंक में छिपा लेता है, कभी उछाल देता है। उसी प्रकार परमात्मा की जो सृष्टि की कामना है वह केवल आनन्द के लिए लीला करते हैं–'लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्' (ब्र. सू. २।१।३३) जिसके फलस्वरूप उनके भक्तों की कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। भगवान प्रलयकालीन अज्ञान की घोर निद्रा में सोते हुए जीवों को इसलिए जगाते हैं ताकि वे कर्म करके मोक्ष प्राप्त कर सकें अर्थात् जीवों को संसार से मुक्त करने के लिए ही संसार की सृष्टि करते हैं।

जैसे आत्मा, आकाश, काल, दिशाएं, गोलोक, वैकुण्ठ आदि नित्य हैं, उसी तरह परमबह्म की लीलाशक्ति नित्य है। जैसे अग्नि में दाहिका शक्ति सदा विद्यमान रहती है, उसी प्रकार परमात्मा में प्रकृति सदैव विद्यमान रहती है। लीलाधर परमात्मा श्रीकृष्ण अपने संकल्प से अपनी अंतरंगा प्रकृति को अपनी संगिनी के रूप में प्रकटकर क्रीड़ा करते हैं। वे जब भी सगुण रूप में अवतरित होते हैं, उस समय प्रकृति और माया–ये दोनों नित्य शक्तियां उनके साथ ही रहती हैं। जैसा कि भगवान ने स्वयं श्रीमद्भगवद्गीता (४।६) में कहा है–

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया।।

अर्थात्–मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।

श्रीमद्भगवद्गीता (७।४-६) में भगवान ने अपनी अष्टधा (अपरा) प्रकृति व परा प्रकृति का वर्णन किया है। अष्टधा प्रकृति को तो परमात्मा ने अपने विश्वरंगमंच की तैयारी हेतु साधन रूप में प्रयुक्त किया। फिर इसकी रचना करने के लिए योगमाया को निर्देश देते हैं। इस प्रकार परमेश्वर अपनी मायाशक्ति के द्वारा अनेक रूपों में हो जाते हैं, स्वयं को ही आधार बनाकर अपने को ही प्रपंचरूप में परिणत कर लेते हैं। वे एक कृष्ण, दो रूप में राधाकृष्ण और बहुत से रूपों में गो, गोप, गोपी आदि लीला के उपकरण रूप से प्रकट हो गये। इसके लिए उन्हें पुन: अपनी प्रकृति के सत्व, रज, तम–इन तीन गुणों को स्वीकार करना पड़ा।

सर्वसमर्थ भगवान का विश्रामालय तो गोलोकधाम, वैकुण्ठ या साकेत है; किन्तु उनका रंगमंच (लीलास्थली) मृत्युलोक ही है। जब उनको विश्रामालय में रहते-रहते कभी लीला करने का मन होता है तो वे मृत्युलोकरूपी विश्व रंगमंच पर अन्य देवों के साथ सृष्टि के कर्ता, धर्ता तथा संहारकर्ता को भी साथ लेकर पूरी तैयारी कर-कराकर अपने अनेक उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए विभिन्न रूप धारण करके आते हैं। इस विश्व रंगमंच पर प्रभु स्वयं सूत्रधार बनते हैं, मंचन करने वालों जीवों को अभिनेता बनाते हैं और माया को नटी–नचाने वाली बनाते हैं। चौदह भुवन ही रंगभूमि है। प्रभु स्वयं सूत्रधार-निर्देशक बनकर जिसे जैसा आदेश देते हैं, वैसा ही उसे करना पड़ता है। भगवान जीवों और जगत का निर्माण करके उनके साथ क्रीड़ा करते हैं, यह चराचर जगत उनकी लीला है।

यहां प्रश्न यह उठता है कि वह आप्तकाम, नित्यतृप्त परमात्मा इस दु:खमय संसार को क्यों रचता है? क्या किसी प्रयोजन से ईश्वर सृष्टि की रचना करता है? इसके लिए यही कहा जा सकता है कि सृष्टि-रचना में ईश्वर का कोई प्रयोजन न होकर केवल उसका स्वभाव या लीला-विलास होता है। जैसे श्वास-प्रश्वास (सांस लेना व छोड़ना) आदि बिना किसी बाह्य प्रयोजन के स्वभाव से ही होते हैं उसी प्रकार सृष्टि-रचना भी किसी प्रयोजन से रहित केवल लीलामात्र ही होती है। 'लीला में रमे रहना' ईश्वर का स्वभाव है, इसलिए श्रुति में उसे 'नित्यलीलानुरागी' कहा है।

गोलोक व उसकी विभिन्न विभूतियों का प्राकट्य

अनन्त ब्रह्माण्डसर्जक भगवान श्रीकृष्ण सर्वसमर्थ, निर्गुण व अनादि आत्मा हैं। वे स्वयं मायापति हैं। गोलोक का प्राकट्य उनकी आदिलीला से सम्बद्ध है। उन्होंने अपने संकल्प से अपने ही स्वरूप से विभिन्न विभूतियों को प्रकट किया।

मातु पिता इनके नहिं कोइ।

आपुहिं करता, आपुहिं हरता, त्रिगुन रहित हैं सोइ।

सबसे पहले विशालकाय हजार मुख वाले शेषनाग का प्रादुर्भाव हुआ, जो कमलनाल के समान श्वेतवर्ण के हैं। उन्हीं की गोद में महान आलोकमय लोक गोलोक प्रकट हुआ। गीता (१५।६) में कहा गया है–भगवान का यह स्वप्रकाशित परमधाम, जिसको प्राप्त होकर पुन: संसार में नहीं लौटना पड़ता, यहां के सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि की ज्योति से प्रकाशित नहीं है।

फिर गोलोकनाथ भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविन्द से गंगा प्रकट हुईं। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण के बांये कंधे से सरिताओं में श्रेष्ठ यमुनाजी का प्रादुर्भाव हुआ। भगवान श्रीकृष्ण के दोनों गुल्फों (टखनों) से मणिमय रत्नों से युक्त दिव्य रासमण्डल और विभिन्न प्रकार की श्रृंगार-सामग्रियों का प्रादुर्भाव हुआ।

इसके बाद परब्रह्म श्रीकृष्ण की दोनों पिंडलियों से निकुंज प्रकट हुआ, जो सभाभवनों, आँगनों, सरोवरों और मण्डपों से घिरा हुआ था जिसमें सर्वत्र मोर, भ्रमर व कोकिलों की काकली गूंज रही थी। भगवान के दोनों घुटनों से समस्त वनों में श्रेष्ठ श्रीवृन्दावन का व दोनों जांघों से लीलासरोवर का आविर्भाव हुआ। उनके कटिप्रदेश से रत्नों से जटित स्वर्णभूमि का प्राकट्य हुआ। भगवान के उदर पर जो रोमावलियां (बाल) हैं, वे ही गोलोक में चारों तरफ फैली माधवी-लताएं बन गईं। उन्हीं लताओं में नाना प्रकार के पक्षियों के झुंड कलरव करते हुए मानों उन सर्वसमर्थ परमात्मा का स्तवन कर रहे हों। वे सुन्दर लताएं फूलों व फलों के भार से इस प्रकार झुकी हुईं थीं मानो झुककर वे उन आदिपुरुष परमात्मा के चरणों को छूना चाहतीं हों। भगवान के नाभिकमल से सहस्त्रों कमल प्रकट हुए जो गोलोक के विभिन्न सरोवरों को सुशोभित कर रहे थे। भगवान के त्रिवली प्रदेश से मन्द-मन्द शीतल समीर प्रकट हुआ और भगवान श्रीकृष्ण के हृदय से 'शतश्रृंग पर्वत' (गिरि गोवर्धन) प्रकट हुआ।

भगवान श्रीकृष्ण की दोनों भुजाओं से 'श्रीदामा' सहित आठ पार्षद उत्पन्न हुए। कलाइयों से 'नन्द' और हथेलियों से 'उपनन्द' प्रकट हुए। भगवान श्रीकृष्ण की भुजाओं से समस्त वृषभानुओं का प्रादुर्भाव हुआ। श्रीकृष्ण के रोमकूपों से समस्त गोपगण उत्पन्न हुए। श्रीकृष्ण के मन से गौओं तथा धर्मधुरंदर वृषभों (सांडों) का प्राकट्य हुआ। भगवान की बुद्धि से घास व झाड़ियां प्रकट हुईं। भगवान के बांये कंधे से एक परम सुन्दर गौर तेज प्रकट हुआ, जिससे लीला, श्री, भूदेवी, विरजा तथा अन्य भगवान की प्रियाएं आविर्भूत हुईं। भगवान की प्रियतमा 'श्रीराधा' ही 'लीलावती' या 'लीला' कहलाती हैं। श्रीराधा की दोनों भुजाओं से उनकी सखियां 'ललिता' व 'विशाखा' का आविर्भाव हुआ। श्रीराधा की अन्य सखी गोपियां उनके रोमकूपों से प्रकट हुईं।

तपस्या द्वारा श्रीराधा को श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल में स्थान प्राप्ति

श्रीकृष्ण के वामभाग से प्रकट हुई श्रीराधा श्रीकृष्ण की प्रेम से आराधना और सेवा करके ही उनके प्रेम की अधिष्ठात्री तथा उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय हुईं हैं। श्रीकृष्ण की सेवा से ही उन्होंने सबसे अधिक मनोहर रूप, सौभाग्य, मान, गौरव तथा श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल में स्थान–उनका पत्नीत्व प्राप्त किया। आदिकाल में श्रीराधा ने शतश्रृंग पर्वत पर एक सहस्त्र दिव्य युगों तक निराहार रहकर तपस्या की। इससे वे अत्यन्त दुबली हो गईं। श्रीकृष्ण ने देखा कि श्रीराधा अत्यन्त कृश हो गयीं हैं, अब उनके शरीर में सांस का चलना भी क्षीण हो रहा है, तब वे करुणामय प्रभु प्रेमातिरेक के कारण उन्हें छाती से लगाकर फूट-फूटकर रोने लगे। उन्होंने श्रीराधा को सभी के लिए अत्यन्त दुर्लभ यह वर प्रदान किया–'प्राणवल्लभे! तुम्हारा स्थान मेरे वक्ष:स्थल पर है, तुम सदा यहीं विराजमान रहो, मुझमें तुम्हारी अविचल प्रेमभक्ति हो। सौभाग्य, मान, प्रेम तथा गौरव की दृष्टि से तुम मेरे लिए सबसे श्रेष्ठ बनी रहो और मेरी सभी भार्याओं में श्रेष्ठ तथा ज्येष्ठ प्रेयसी के रूप में सदा प्रतिष्ठित रहोगी।

तुम्हें महिमामयी मानकर मैं सदा तुम्हारी स्तुति-पूजा किया करुंगा। हे प्राणवल्लभे! मैं तुम्हारे लिए सदा सुलभ और हर प्रकार से तुम्हारे अधीन रहूंगा।' इस प्रकार श्रीराधा को ऐसा वर प्रदान कर श्रीकृष्ण ने उन्हें सपत्नी के भाव से रहित कर दिया और अपनी प्राणप्रिया बना लिया।

इस प्रकार अपने सम्पूर्ण लोक की रचना करके परात्पर परमात्मा श्रीकृष्ण नित्य धाम गोलोक के श्रीवृन्दावन में श्रीराधा के साथ निवास करते हैं। श्रीकृष्ण जहां प्रकट होते हैं, वहां वृन्दावन को साथ लेकर ही प्रकट होते हैं।

अर्थात् जहां वे प्रकट होते हैं, वहीं वृन्दावन है। वहां बहुत-सी गोपांगनाएं, गौएं तथा द्विभुज गोप-पार्षद उनकी सेवा में उपस्थित रहते हैं। वे गोलोकाधिपति श्रीकृष्ण ही परिपूर्णतम ब्रह्म हैं। वे ही समस्त जीवों की आत्मा हैं। वे सदा स्वेच्छामयरूप धारणकर दिव्य वृन्दावन के अन्तर्गत रासमण्डल में विहार करते हैं। वे स्वयं तेज:स्वरूप होते हुए भी भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए ही दिव्य विग्रह धारण करते हैं; क्योंकि विग्रह के बिना भक्तों से सेवा और ध्यान बन ही नहीं सकता।

वे करोड़ों सूर्यों के समान दीप्तिमान हैं। नूतन मेघ की-सी श्याम कान्ति, शरद्ऋतु के प्रफुल्ल कमलों के समान नेत्र, शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की भांति मन्द मुस्कान की छटा से सुशोभित मुख और करोड़ों कन्दर्पों को भी तिरस्कृत करने वाला लावण्य उनकी सहज विशेषताएं हैं। वे शान्तस्वरूप अनन्त आनन्द से परिपूर्ण हैं। कभी निर्जन वन में गोपांगनाओं से घिरे रहते हैं। कभी गोप-बालकों से घिरे हुए गोपवेष से सुशोभित होते हैं। कभी सैंकड़ों शिखर वाले शतश्रृंग (गोवर्धन पर्वत) से युक्त रमणीय वृन्दावन में कामधेनुओं के समुदाय को चराते हुए बालगोपाल के रूप में देखे जाते हैं। कभी गोलोक में विरजा के तट पर पारिजातवन में मधुर मुरली बजाकर गोपांगनाओं को मोहित किया करते हैं।

कभी वैकुण्ठधाम में चतुर्भुज लक्ष्मीकान्त के रूप में रहकर चारभुजाधारी पार्षदों से सेवित होते हैं। कभी तीनों लोकों के पालन के लिए अपने अंशरूप से श्वेतद्वीप में विष्णुरूप धारण करके रहते हैं और पद्मा (लक्ष्मी) उनकी सेवा करती हैं। कभी किसी ब्रह्माण्ड में अपने अंश से ब्रह्मारूप में विराजमान होते हैं। कभी अपने अंश से शिवरूप धारणकर शिवधाम में निवास करते हैं। कभी अपने सोलहवें अंश से महान विराट् रूप धारण करते हैं, जिनके रोम-रोम में अनन्त ब्रह्माण्ड निवास करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ही सभी अवतारों के सनातन बीज हैं जो कभी योगियों व संत-महात्माओं के हृदय में निवास करते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण एक भी हैं, अनेक भी हैं–महाभारत के द्रोणपर्व (२९।२६-२९) में एक कथा है कि जब अर्जुन और भगदत्त का युद्ध हो रहा था तो भगदत्त के द्वारा चलाए गए वैष्णवास्त्र से अर्जुन की रक्षा भगवान श्रीकृष्ण ने की थी। भगदत्त द्वारा छोड़े गए उस विनाशक अस्त्र को भगवान ने अर्जुन को अपने पीछे ओट में करके स्वयं अपनी छाती पर सह लिया। भगवान श्रीकृष्ण की छाती पर वह अस्त्र वैजयन्ती माला के रूप में परिणत हो गया। अर्जुन को बहुत क्षोभ हुआ और यह पूछने पर कि आपने मुझे पीछे ओट में क्यों किया? भगवान ने इसका रहस्य अर्जुन को इस प्रकार बतलाया–'सम्पूर्ण लोकों की रक्षा करने हेतु मैं चार रूप धारण करता हूँ। अपने को यहां अनेक रूपों में विभक्त कर देता हूँ।

मेरी एक मूर्ति इस पृथ्वी पर बदरिकाश्रम में नर-नारायण रूप में स्थित हो तपस्या करती है। दूसरी मूर्ति परमात्मा के रूप में शुभ-अशुभ कर्म करने वालों को साक्षी रूप से देखती है। तीसरी मूर्ति से मैं स्वयं मनुष्यलोक में अवतरित होकर नाना प्रकार के कर्म करता हूँ तथा चौथी मूर्ति सहस्त्र युगों तक एकार्णव के जल में शयन करती है। सहस्त्र युग के बाद मेरा यह चौथा रूप जब योगनिद्रा से जागता है, उस समय मैं श्रेष्ठ भक्तों को वर देता हूँ।' सारांश यह है कि वे सब कुछ हैं–वे पूर्ण पुरुषोत्तम हैं, सनातन ब्रह्म हैं, गोलोकबिहारी हैं, क्षीरसागरशायी परमात्मा हैं, वैकुण्ठनिवासी विष्णु हैं, बदरिकाश्रमसेवी नर-नारायण ऋषि हैं, सर्वव्यापी आत्मा हैं; भूत, भविष्य, वर्तमान में जो कुछ है, वे वह सब कुछ हैं, और जो उनमें नहीं है, वह कभी कहीं नहीं था, न है और न होगा।