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बड़ी हवेली (श्रापित हीरे की खोज)

"शाहजहां ने अपने लिए एक विशेष सिंहासन बनवाया। इस सिंहासन को बनाने में सैयद गिलानी नाम के शिल्पकार और उसका कारीगरों का टीम को कोई सात साल लगा। इस सिंहासन में कई किलो सोना मढ़ा गया, इसे अनेकानेक जवाहरातों से सजाया गया। इस सिंहासन का नाम रखा गया तख्त—ए—मुरस्सा। बाद में यह 'मयूर सिंहासन' का नाम से जाना जाने लगा। बाबर के हीरे को भी इसमें मढ़ दिया गया। दुनिया भर के जौहरी इस सिंहासन को देखने आते थे। इन में से एक था वेनिस शहर का होर्टेंसो बोर्जिया। बादशाह औरंगजेब ने हीरे का चमक बढ़ाने के लिए इसे बोर्जिया को दिया। बोर्जिया ने इतने फूहड़पन से काम किया कि उसने हीरे का टुकड़ा टुकड़ा कर दिया। यह 793 कैरट का जगह महज 186 कैरट का रह गया... औरंगजेब ने दरअसल कोहिनूर के एक टुकड़े से हीरा तराशने का काम बोर्जिया को खुफ़िया रूप से दिया था और उसी कोहिनूर के हिस्से को शाह जंहा कि जेल की दीवार में चुनवा दिया गया था जिसकी सहायता से वह ताजमहल तथा अपनी अज़ीज़ बेगम की रूह को देखते थे ।

Ivan_Edwin · ホラー
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27 Chs

डायरी-3

मैंने डॉक्टर ज़ाकिर की ओर देखते हुए कहा "वो सब तो ठीक है लेकिन आज की रात भी हम सबको थोड़ा सतर्क रहने की ज़रूरत है। ऐसा करो कि सिर वाला बक्सा मेरे टेंट में रखवा दें, मैं थोड़ी देर सो चुका हूँ तो उस अंग्रेज के कटे हुए सिर पर निगरानी आराम से रख सकता हूँ, हो सकता है आज की रात उसका धड़ अपने सिर को तलाश करे ऐसे में टीम के सदस्यों के सहारे उसे नहीं छोड़ सकते हैं, मान लो किसी की आँख लग ही तो उस अंग्रेज के धड़ को उसका ताकतवर सिर दुबारा मिल जाएगा।"

" मेरे ख्याल से तुम बिलकुल सही कह रहे हो, हम जोखिम नहीं ले सकते हैं, अभी अपने आदमियों से बोलकर सिर वाला बक्सा तुम्हारे टेंट में रखवा देता हूँ", डॉक्टर ज़ाकिर ने मुझसे सहमत होते हुए कहा और अपने दो आदमियों को बुलवाकर उस बक्से को मेरे टेंट में रखवा दिया। खाने का भी समय हो चला था बक्से को अपने टेंट में रखवाकर हम सब ही खाना खाने के लिए चले गए। खाने में लज़ीज़ हिरण का गोश्त बना था ।

खाना समाप्त होते ही मैं सीधा डॉक्टर ज़ाकिर के टेंट में चला गया। हमने काफ़ी देर तक बात की। उनके टेंट में बैठ कर हम दोनों हीरों को देख उसे अलग अलग रख रहे थे। जैसा डॉक्टर ज़ाकिर ने कहा था सौ सौ हीरे हम दोनों ने छांट कर अलग कर लिए जो अनोखे और अधिक कीमती थे। उन्हे कपड़े की एक पोटली नुमा छोटे बटुए में रखा और अपने टीम के सदस्यों की गिनती कर उनके लिए भी एक एक हीरा निकाल उसे अलग कपड़े के बटुए में रखा। रात काफ़ी हो गई थी मैंने डॉक्टर ज़ाकिर को शुभ रात्री कहा और अपने हिस्से के हीरों के साथ अपने टेंट में सोने चला गया।

उस अंग्रेज ऑफिसर के सिर वाला खतरनाक बक्सा भी वहीं रखा था। मैं टेंट में आकर थोड़ी देर के लिए लेट गया और सोचने लगा कि आज की रात चार लोग कैंप की पेहरेदारी कर रहे हैं हत्यारों के साथ अगर उनसे चूक हो गई और सिर अंग्रेज अधिकारी के हांथों लग गया तो मुसीबत खड़ी हो जाएगी, डॉक्टर ज़ाकिर का हीरा बांटना भी व्यर्थ हो जाएगा क्यूँकि सिर हाँथ लगते ही सबसे पहले उनका और बाद में मेरा शिकार हो जाएगा। सोचते ही सोचते कब आँख लग गई पता ही नहीं चला।

"कम हियर... वेयर आर यू गोइंग.... यू स्टुपिड.... कम हियर इन द नेम ऑफ क्वीन ", एक अनजान आवाज़ सी सुनाई पड़ी।

मैंने अपनी आँखे खोली क्यूँकि नींद टूट जो गई थी फ़िर थोड़ी देर उस आवाज़ को दुबारा सुनने के लिए वहीं लेटा रहा।

"आई कैन हियर द साउंड ऑफ योर फूट स्टेप ", एक बार फिर वो अनजान आवाज़ सुनाई पड़ती है।

देखा तो उस अंग्रेज का सिर संदूक के अंदर से आवाज़ दे रहा था। उस संदूक के अन्दर तेज लाल रोशनी चमक रही थी जो कीहोल से साफ़ देखी जा सकती थी। मैंने अपने मन में सोचा इसे तो कपड़े के बड़े बटुए में रखा था फिर संदूक से इतनी तेज रोशनी कैसे चमक सकती है लगता है इसे किसी ने बटुए में से बाहर निकाल कर संदूक में ऐसे ही रख कर बंद कर दिया है लेकिन इसकी चाबी तो मेरे पास है। खैर ये समय इन सब बातों को सोचने का नहीं था। मैंने अपने बगल में रखी राइफल उठाई और टेंट के द्वार को निशाने पर रख कर बैठ गया। अगर इसका धड़ सामने से आता तो ख़ातिरदारी के लिए तैयार था।

"टुम कहाँ पे है... आई एम वेटिंग..... इन द नेम ऑफ क्वीन कम क्विक.... आज डॉक्टर का बारी है..... ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़ज़ाने को कोई नहीं ले जाने को सकटा है... इन द नेम ऑफ क्वीन कम फास्ट..... कहाँ मर गया टुम", संदूक के अंदर से अंग्रेज अधिकारी आवाज़ लगाता है लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है। शायद इसका धड़ न देख पाने की वजह से भटक गया था और सिर संदूक के अंदर से पुकार रहा था। एक बार पुकारने के बाद वो थोड़ी देर के लिए खामोश हो जाता था और अपने शरीर के बाकी हिस्से के आने का इंतजार करता था। मेरे अंदर भी डर की लहर सी दौड़ गई थी। फिर भी मैंने अपने अंदर थोड़ा साहस जुटा रखा था, हांथों में राइफल जो थी।

उस अंग्रेज अधिकारी ने एक बार और आवाज़ लगाई "अरे टुम किधर रह गया उल्लू का डुम... इन द नेम ऑफ क्वीन जब सन निकलेंगा टब आएगा क्या... कम सून यू फ़ूल।"

एक तो उसकी आवाज़ भारी थी और ऊपर वो गरज रहा था। मैंने सोचा कि अगर इसकी आवाज़ सुनकर इसका धड़ बाहर निकल कर आ गया तो मुसीबत बढ़ सकती है। मेरे दिमाग में एक योजना आई, मैंने उसे आवाज़ लगाई " कौन है," फिर अपने स्वर को थोड़ा धीमा कर के कहा " क्यूँ इतनी रात में शोर मचा के रखा है, कोई नहीं आने वाला है तुम्हारी मदद के लिए।"

"ओ! डॉक्टर का साथी प्रोफेसर बोलटा है.... टुम भी नहीं बचेंगा यू ब्लडी थीफ़ एक बार हमारा धड़ को आने दो... इन द नेम ऑफ क्वीन टुम्हारा एक भी आदमी को ज़िंदा नहीं छोड़ेंगा", अंग्रेज अधिकारी ने गुस्से में कहा लेकिन अब उसके निकलते हुए अल्फाज़ों पर इतना ज़ोर नहीं लग रहा था जिससे आवाज़ और बातें बाहर आसानी से नहीं सुने जा सकते थे। मेरी योजना काम करने लगी थी वो भी मेरे सवालों का जवाब दे रहा था और बातों में उलझ गया था।

मैंने उससे पूछा " आप कौन हैं माई लॉर्ड", उस संदूक की तरफ़ देखते हुए।

"हम कमांडर ब्राड शॉ राउडी है", उस अंग्रेज अधिकारी ने मेरे सवाल का जवाब दिया।

मैंने बातों का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए कहा "इंडिया अब आज़ाद हो चुका है कमांडर साहब और अब ये ख़ज़ाना भारत सरकार की विरासत है"।

"इंडिया आज़ाद हो गया इससे क्या ये ख़ज़ाना कमांडर ब्राड शॉ राउडी का निगरानी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का हाई कमांड द्वारा दिया गया है और ब्राड शॉ है तो इस ख़ज़ाने को कोई नहीं ले जाने को सकटा है, इन द नेम ऑफ क्वीन ", कमांडर ने जवाब दिया उसकी आवाज़ में काफ़ी क्रोध भरा था लेकिन साथ ही साथ उस आवाज़ में काफ़ी आत्मविश्वास भरा हुआ था।

मेरे मन में उस ख़ज़ाने के बारे में विस्तार से जानने की बड़ी उत्सुकता हुई तो मैंने उससे सारी बातें शुरू से बताने को कहा क्यूँकि यह जानना बहुत जरूरी था कि वह इस ख़ज़ाने से कैसे जुड़ा और ख़ज़ाना शहर या गाँव को छोड़ इतनी दूर सुनसान पहाड़ों की गुफा में क्या कर रहा था, ये एक पहेली थी जिसका जवाब केवल कमांडर ही दे सकता था।

कमांडर ने सब बताना शुरू किया "एक दौर ऐसा भी था कि ईस्ट इंडिया कंपनी का कब्ज़े में एशिया का टमाम देश था। इस कंपनी का पास सिंगापुर और पेनांग जैसा बड़ा बड़ा बंदरगाह था। ये ब्रिटेन में रोज़गार देने का सबसे बड़ा ज़रिया था।

भारत में इस कंपनी का पास ढाई लाख से ज़्यादा लोगों का फौज था। ये सिर्फ़ इंग्लैंड ही नहीं, यूरोप का तमाम देशों का लोगों का ज़िंदगियों में दखल रखटा था। लोग चाय पीता था तो ईस्ट इंडिया कंपनी का, और कपड़े पहनता था तो ईस्ट इंडिया कंपनी का, इन द नेम ऑफ क्वीन"।

कमांडर ने आगे जारी रखा " 1498 में परतगेज़ी मुहिम जो वास्कोडिगामा ने अफ़्रीका का दक्षिणी कोने से रास्ते ढूंढ कर भारत को समुद्री रास्ते का ज़रिए यूरोप से जोड़ दिया था।आने वाले दशकों का दौरान धौंस, धमकी और दंगा-फ़साद का इस्तेमाल करके परतगेज़ी बहरे-ए-हिन्द का तमाम व्यापारों पर क़ाबिज़ हो गए और देखते ही देखते पुर्तगाल का क़िस्मत का सूरज आधे आसमान पर जगमगाने लगा।

इनका देखा-देखी डच अपने तोप वाहक नौसेना जहाज़ लेकर बहर-ए-हिन्द में आ धमका और दोनों देशों के बीच लड़ाई-झगड़ा होने लगा।

जब पुर्तगालियों ने भारत का इतिहास पलट कर रख दिया।

इंग्लिस्तान ये सारा खेल बड़े ग़ौर से देख रहा था, भला वो इस दौड़ में क्यों पीछे रह जाता? इसलिए महारानी एलिज़ाबेथ ने इन दो देशों का नक़्शे-क़दम पर चलते हुए दिसम्बर 1600 में ईस्ट इंडिया कम्पनी स्थापित करवा कर इसे एशिया का देशों का साथ पूर्ण स्वामित्व के साथ व्यापार का इजाज़त-नामा कर दिया।

लेकिन अंग्रेज़ों ने एक काम किया जो हमसे पहले आने वाला दोनों यूरोपीय देशों से नहीं हो सकता था। उन्होंने सिर्फ़ युद्ध का व्यापार पर सारी उर्जा खर्च नहीं किया बल्कि दूतावास का काम पर भरपूर ध्यान दिया। यही वजह था कि अंग्रेजों ने थॉमस रो जैसा मंझे हुए राजदूत को भारत भेजा ताकि वो ईस्ट इंडिया कम्पनी का वास्ते बंद दरवाज़ा खोल दे।

अंग्रेजों का ईस्ट इंडिया कंपनी का स्थापना 31 दिसंबर 1600 का दिन एक शाही आदेशपत्र (रॉयल चार्टर) का द्वारा लंदन का उन सौदागरों का एक संयुक्त स्टॉक कंपनी का रूप में हुआ था जो पूरब के व्यापार में डचों का प्रतियोगिता का मुकाबला करने के लिए एक हुआ था। इस कंपनी को पूरब का साथ इंग्लैंड का समस्त व्यापार का एकाधिकार दे दिया गया और वणिकवादी विचारों का वर्चस्व वाला उस काल में भी अपने व्यापार का खर्च उठाने के लिए कीमती धातुओं (Bullion) को देश से बाहर ले जाने का अनुमति दे दिया गया ।

कंपनी ने औपचारिक रूप से भारत में अपना व्यापार 1613 में आरंभ किया जबकि वह अपने से पहले रंगमंच पर आए पुर्तगालियों का साथ हिसाब बराबर कर चुका था।

मुगल बादशाह जहाँगीर का एक फरमान ने उसे भारत में अपना फैक्टरियाँ (गोदाम) बनाने का अनुमति दिया और पहला फैक्टरी पश्चिमी तट पर सूरत में बनाया गया। 1617 में जहाँगीर ने अपना दरबार में अंग्रेजों के आवासी दूत का रूप में सर थॉमस रो का स्वागत किया।

यही वह विनम्र प्रारंभ था जिसका बाद कंपनी ने धीरे-धीरे अपना व्यापारिक कार्यकलापों को भारत का दूसरा भागो में फैलाया और बंबई कलकत्ता और मद्रास सत्रहवीं सदी का अंत तक उसके कार्यकलापो का तीन प्रमुख केंद्र बन चुका था, इन द नेम ऑफ क्वीन हम बताते बताते आगे का भी बता दिया। "

" ख़ैर हुआ ये कि बादशाह का सालगिरह था और मुग़ल रिवायत का मुताबिक़ उन्हें तौला जाना था। इस मौक़े पर ब्रिटिश राजदूत सर थॉमस रो भी दरबार में मौजूद था।

समारोह पानी में घिरा एक चौकोर चबूतरे पर आयोजित किया जा रहा था चबूतरे का बीचों-बीच एक विशालकाय सोने का पन्नी चढ़ा तराज़ू स्थापित था । एक पलड़ा में कई रेशमी थैले रखे हुए थे, दूसरे में खुद चौथे मुग़ल शहंशाह नुरूद्दीन मोहम्मद जहांगीर सावधानी से सवार हुआ।

भारी लबादों, ताज और सोने और आभूषण समेत शहंशाह जहांगीर का वज़न तक़रीबन ढ़ाई सौ पाउंड निकला।एक पलड़ा में ज़िल्ले-इलाही बैठा था, दूसरे में रखा रेशमी थैले बारी बारी तब्दील किया जाता था । पहले मुग़ल बादशाह को चांदी का सिक्कों से तौला गया, फिर तुरंत ही गरीबों में बांट दिया गया। इसके बाद सोने का बारी आया, फिर आभूषण, बाद में रेशम और आख़िर में दूसरा बेश-क़िमती चीज़ों से बादशाह सलामत का वज़न का तुलना किया गया ।

ये वो दृश्य था जो आज से तक़रीबन ठीक तीन सौ साल पहले मुग़ल शहंशाह नुरूद्दीन मोहम्मद जहांगीर का दरबार में ब्रिटिश राजदूत सर थॉमस रो ने देखा और डायरी में नोट कर लिया। लेकिन दौलत का इस हैरत कर देने वाला प्रदर्शन ने सर थॉमस को शक में डाल दिया कि क्या बंद थैले वाक़ई हीरे-जवाहारात या सोने से भरे हुए हैं, कहीं इनमें पत्थर तो नहीं," कमांडर बोलते बोलते थोड़ी देर के लिए खामोश सा हो गया।

" आगे क्या हुआ", मैंने उत्सुकता से पूछा।

"वैसा तो सर थॉमस रो का अच्छा दोस्ती था बादशाह से लेकिन ब्रिटिश के साथ व्यापार करने से कतराता था उसका सबसे बड़ा कारण यह था कि इंगलिस्तान एक छोटा सा अप्रत्याशित द्वीप था और बादशाह उसका साथ व्यापार करना अपना शान के ख़िलाफ़ समझता था। बादशाह किसी न किसी बहाने इंगलिस्तान को ये एहसास दिलाता रहता था कि वह एक छोटा सा द्वीप था सर थॉमस रो ने अपना डायरी में ये सारा बात लिख कर रखा था। लेकिन सर थॉमस रो ने हार नहीं माना वो बादशाह को इस बात का एहसास दिलाता रहता था कि वह सही है लेकिन व्यापार के लिए और उन्नति के लिए फैक्ट्रीयां (गोदाम) का बनना बहुत जरूरी है, इन द नेम ऑफ क्वीन ", कमांडर ने आगे बताया।

" बादशाह का इंगलिस्तान के साथ व्यापार न करने का वजह ये भी था कि मुग़ल शहंशाह पूरी दुनिया में सिर्फ़ ईरान के सफ़वी बादशाह और उसमानी ख़लीफ़ा को अपना प्रतिद्वंद्वी समझते थे। इसका किसी मामूली बादशाह के साथ बराबरी का स्तर पर समझौता करना उसका शान के ख़िलाफ़ था। सर थॉमस रो ने तीन साल का कड़ा मेहनत, राजनयिक दांव-पेंच और तोहफ़े देकर जहांगीर से तो नहीं, लेकिन वली अहद शाहजहां से आज से ठीक तीन सौ साल पहले अगस्त 1618 में एक समझौते पर हस्ताक्षर करवाने में कामयाब रहा, जिसके तहत इस कम्पनी को सूरत में खुलकर कारोबार करने का इजाज़त मिल गया। लेकिन उससे पहले काफ़ी मेहनत करना पड़ा, सर थॉमस रो ने अपना डायरी में यह भी लिखा एक ओर जनता ग़रीब और बेरोजगार है दूसरी तरफ बादशाह आलीशान जीवन बिता रहा है यहाँ के हिन्दू राजा महाराजा का कहना है कि सारा दौलत उनसे लूटा गया। बादशाह और उनका पूर्वज ने हिन्दू राजा महाराजा का पूर्वज का ख़ज़ाना लगभग खाली कर दिया है। हर चीज़ में टैक्स लेता है यहाँ तक की उसका holy place का ऊपर भी टैक्स है। थॉमस रो का डायरी से और उसका रिपोर्ट से हिन्दुस्तान का सारा हाल हम लोगों को इंगलिस्तान में मिला। फिर भी हम सबने उनका राजनीतिक मुद्दा पर बोलना सही नहीं समझा। कंपनी का व्यापार करने से हिन्दुस्तान के लोगों का आर्थिक स्थिति सुधरा उनको रोज़गार मिलना शुरू हुआ। फैक्ट्री और गोदामों में उनको बतौर कर्मचारी रखा गया। हिन्दुस्तान का लोग काफ़ी ख़ुश था उनका अन्दर अनुशासित ढंग से जीने का तरीका आ गया। लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी का तरक्की और हिंदुस्तान के लोगों का ख़ुश हाल जीवन ख़ुद यहाँ बादशाह के लोगों से बर्दाश्त नहीं हुआ। यह वह लोग था जो ख़ुद बादशाह का तख्ता पलट कर देना चाहता था।

1623 में खुर्रम ने विद्रोह कर दिया। क्योंकि नूरजहाँ अपना दामाद नगरयार को वली अहद बनाने की कोशिश कर रहा था। अंत में 1627 को बाप और बेटे में सुलह हो गया ।

जहाँगीर का कई बार शादी हुआ। उनका सबसे मशहूर पत्नी नूरजहाँ था। जोकि एक बागी अधिकारी शेर अफ़ग़ान की विधवा था।

जहाँगीर का मृत्यु बीमारी के कारण 7 नवम्बर, 1627 को हुआ था। उनका मृत्यु के समय वो कश्मीर से लाहौर जा रहा था। जहाँगीर का तिसरा पुत्र सबसे सफल रहा था जिसका नाम खुर्रम था। शाहजहाँ के ही बचपन का नाम खुर्रम था।

24 फरवरी 1928 को जहाँगीर का मृत्यु के बाद शाहजहाँ तख्त पर बैठा। शुरुआत का तीन साल बुंदेल का जुझार सिंह और अफ़गान सरदार खानेजहाँ लोदी का विद्रोह दबाने में गुज़र गया।

शाहजहाँ का मुकाबला सिक्खों का छठा गुरु हर गोविंद सिंह से भी हुआ , जिसमें सिक्ख सेना हार गया था।

शाह जहाँ का शादी असफ खां का बेटी अर्जुमन बानू बेगम से हुआ था।जिसका बाद में नाम मुमताज़ महल रखा गया।

1633 में शाहजहाँ ने दक्षिण भारत का

अहमद नगर पर आक्रमण किया और उसे मुग़ल साम्राज्य का हिस्सा बनाया। इसका कुछ साल बाद 1636 में गोलकुण्डा पर आक्रमण किया जहाँ का तत्कालीन सुल्तान अब्दुल्ला शाह को हार का सामना करना पड़ा।

अब्दुल्ला शाह ने मुगलों का अधीनता स्वीकार किया। इसी दौरान अब्दुल्ला शाह के वज़ीर मीर जुमला ने शाहजहाँ को बेशकीमती हीरा कोहिनूर भेंट स्वरूप दिया," कमांडर बता ही रहा था कि कोहिनूर का नाम सुनते ही मैं रुक न पाया।

उसे कहानी के बीचोंबीच ही टोक दिया " कोहिनूर हीरा क्या हुआ उसका, ज़रा आगे बताओ ", मैंने बड़ी उत्सुकता दिखाते हुए पूछा।

" क्यूँ प्रोफेसर कोहिनूर का नाम सुनते ही तुम्हारा आँख गोल गोल हो गया ", कमांडर ने व्यंग्य कसा।

"शाहजहां ने अपने लिए एक विशेष सिंहासन बनवाया। इस सिंहासन को बनाने में सैयद गिलानी नाम के शिल्पकार और उसका कारीगरों का टीम को कोई सात साल लगा। इस सिंहासन में कई किलो सोना मढ़ा गया, इसे अनेकानेक जवाहरातों से सजाया गया।

इस सिंहासन का नाम रखा गया तख्त—ए—मुरस्सा। बाद में यह 'मयूर सिंहासन' का नाम से जाना जाने लगा। बाबर के हीरे को भी इसमें मढ़ दिया गया। दुनिया भर के जौहरी इस सिंहासन को देखने आते थे।

इन में से एक था वेनिस शहर का होर्टेंसो बोर्जिया। बादशाह औरंगजेब ने हीरे का चमक बढ़ाने के लिए इसे बोर्जिया को दिया। बोर्जिया ने इतने फूहड़पन से काम किया कि उसने हीरे का टुकड़ा टुकड़ा कर दिया। यह 793 कैरट का जगह महज 186 कैरट का रह गया। औरंगजेब ने दरअसल कोहिनूर के एक टुकड़े से हीरा तराशने का काम बोर्जिया को खुफ़िया रूप से दिया था और उसी कोहिनूर के हिस्से को शाह जंहा कि जेल की दीवार में चुनवा दिया गया था जिसकी सहायता से वह ताजमहल तथा अपनी अज़ीज़ बेगम की रूह को देखते थे । खैर ये तो बाद का बात है सबसे ज़रूरी तो यह है कि कैसे औरंगजेब ने शाहजहाँ को बन्दी बनाया और कैसे ये हीरा और तुमको मिला ख़ज़ाना अंग्रेजी हुकूमत के पास आया, इन द नेम ऑफ क्वीन, अब बाकी का कहानी हम कल बताएगा, सुबह होने वाला है अब हमारा आराम का समय है, तुम लोग आज का रात तो बच गया... ब्लडी इडियट हमारा बॉडी कहाँ रह गया.... कल फिर मिलेगा हो सकता है हमारा बॉडी कल हमको ढूंढ ले ", कमांडर ने बड़ी उम्मीदों के साथ कहा और खामोश हो गया।

जैसे ही कमांडर खामोश हो गया मैं समझ गया कि सो गया अब कोई खतरा नहीं था रात भर कहानी सुनने के बाद मैं भी थक गया था इसलिए सो गया।

"जागो अरे भाई जागो, सुबह हो गई है, अरे भाई प्रोफेसर सुबह हो गई", मैंने आँखें खोला तो देखा डॉक्टर ज़ाकिर सामने खड़े आवाज़ दे रहे थे।

डॉक्टर ने फिर कहा "अरे आज सुबह 12:00 जानते हो क्या हुआ"।

मैंने पूछा "क्या हुआ था", अपनी आँखों को मलते हुए जैसा अक्सर ज़्यादातर लोग नींद से जाग कर करते हैं।

" कल उस अंग्रेज अधिकारी का धड़ टेंट से बाहर निकल कर गश्त लगा रहा था, उसे कुछ दिखाई नहीं देने की वजह

हताश सा कैंप के बाहर इधर-उधर टहल रहा था, कल रात पेहरे पर लगे एक आदमी ने मुझे उठाया फिर सारी बातें बताईं, टेंट से बाहर निकल कर देखा तो महाशय उन्ही पेहरेदारों के साथ बैठे हुए थे। वो सभी आराम से बातें कर रहे थे लेकिन उन्हें सुनाई नहीं देने से कोई दुर्घटना नहीं हुई। तुमने ठीक ही कहा था उस ज़िन्दा लाश की सारी ताकत उसके सिर में है", डॉक्टर ज़ाकिर ने मेरे कंधों पर को पकड़ कर मेरी ओर देखते हुए कहा।

मैं भी कुछ पलों के लिए मुस्कुराने लगा फिर कहा " चलो अच्छा है खतरा तो टला"।

" कल तुम्हारे साथ क्या हुआ, आखिर तुम उसके सबसे खतरनाक अंग के साथ थे ", डॉक्टर ज़ाकिर ने मेरी तरफ़ बड़ी उत्सुकता से देखते हुए पूछा।

"ज़्यादा कुछ तो नहीं हुआ बस मेरी नींद टूट गई देखा तो उस संदूक के चाभी लगाने वाली जगह से लाल रोशनी निकल रही थी अब संदूक में अलग से ताला तो लगता नहीं है। वो विशेष रूप से ख़ज़ाने या कीमती गहनों के लिए बना था और अंग्रेज अधिकारी का सिर अपनी बॉडी को आवाज़ लगा रहा था। वह काफी गुस्से में था लेकिन हम इंसानों की आवाज़ सुन पाने में असमर्थ था ", मैंने डॉक्टर ज़ाकिर से झूठ इसलिए कहा क्यूँकि मुझे उसका पता लगाना था जिसने कमांडर का सिर को संदूक खोलकर उसे कपड़े के थैले से बाहर निकाल कर संदूक में ऐसे ही रख दिया था। तभी तो रोशनी इतनी तेज चमक रही थी और उसकी आवाज़ बिना दबे सुनाई पड़ रही थी, अमूमन तौर पर जब किसी के ऊपर मोटे कपड़े के थैले , झोले या चादर से ढक देते हैं तो आवाज़ दबी हुई सुनाई पड़ती है ।

हालांकि डॉक्टर ज़ाकिर मेरे शक़ के दायरे से बाहर ही थे और मैं उन्हें अच्छे से जानता हूँ, वो मेरे अच्छे दोस्त भी हैं और अगर उन्हें धोखा देना ही होता तो मेरे हिस्से के हीरे पहले से ना देते, उन पर शक़ करना ही बेकार था।

"अच्छा अब फ्रेश होकर कुछ खा पी लो, हमलोग 11:00 बजे तक निकलेंगे तो पहाड़ी पार करके आज शाम 6:00 बजे तक गाँव पहुँच जाएँगे। आज रात वहीं रुक कर कल सुबह गाड़ियों में पहाड़ों से नीचे उतर कर हाई वे का रास्ता पकड़ लेंगे, मैंने गाँव में रुकने का इंतज़ाम पहले ही कर लिया था, उसी मुखिया के खाली पड़े बंगलों में रुकेंगे जिसमें चढ़ाई चढ़ने से पहले रुके थे", डॉक्टर ज़ाकिर ने मुझसे कहा और टेंट से बाहर चले गए।

मैंने उनके जाते ही उस संदूक को खोला तो देखा कि मेरा शक़ सही था कमांडर का सिर बिना कपड़े के थैले सहित ऐसे ही रखा हुआ था। फिर मैंने उस संदूक को बंद कर दिया और हीरे के बटुए को देखा तो सब कुछ ठीक था। उन हीरों को अपने कपड़ों वाले सूटकेस में रख ताला मार दिया। फ्रेश होने के लिए टेंट से बाहर निकल गया। टीम के सदस्य नाश्ता बना रहे थे। मैंने टेंट के बाहर बाल्टी में रखे पानी से हाथ मुँह धोया और टीम के एक सदस्य को आवाज़ लगाकर नाश्ता अंदर ही भेजने को कहा। नाश्ते के बाद सारा सामान घोड़ों पर लदवा दिया।

©IvanMaximusEdwin