"यार प्रेम एक बात कहुँ, मुझे ऐसा लगता है तू मेरा छोटा भाई है, तू तो यार पीता भी नहीं फिर भी मेरे साथ रोज बैठ जाता है मेरी सभी बातें सुनता है, और मेरे दुख में कभी उदास हो जाता है तो कभी मेरी खुशी में खुश हो जाता है, अच्छा लगता है यार तूँ पराया होकर भी मुझे कितना मान देता है, लव यू भाई।" आनन्द बोला।
"भाई साहब, मुझे आपके साथ बैठना अच्छा लगता है, और महसूस होता है कि किसी अपने के साथ हूँ , मेरा तो दुनिया में कोई नहीं है, शहर में इधर उधर भटक भटक कर थक गया हूँ, घर पर तो सोने के लिए ही जाना होता है, अच्छा है आपकी कम्पनी मिल गई, और इन छ महीनों में जब से आप ट्रांसफर होकर आए हो, मुझे एक सच्चा दोस्त मिल गया है, अच्छा लगता है, पर आप आज इतने उदास क्यों हो?" प्रेम ने पूछा।
"जाने दे यार, प्रेम मेरे घर का रोज का लफड़ा है ये तो और इसका कोई इलाज भी नहीं, ये सोचकर अपने शहर में ट्रांसफर करवाया था कि बच्चों को दादी का प्यार मीलेगा, पापा तो बरसों पहले ही भगवान को प्यारे हो गए थे, बच्चों को उनका चेहरा भी याद है कि नहीं कह नहीं सकता, पर यार यहां आकर तो पता चला मैं और मेरे बच्चे जैसे पराये हो गए हैं, हमें अपनाया नहीं जा रहा, इन 12 सालों में हम दूर रहें है सबसे , तो सबके लिए दिल से भी दूर हो गए हैं, पराये हो गए हैं, न उनके लिए मैं मायने रखता हूँ, ना बच्चे सब अजनबी से हो गए हैं, सबको हमारे बिना रहने की आदत हो चली है, जबकि बच्चों का मन टूटता है, दादी के प्यार के लिए,और माँ है कि उन्हें छोटे भाई के बिवि बच्चे ही अच्छे लगते हैं, माँ के मन में तो मेरे बच्चों के लिए प्रेम ही नहीं उमड़ता , मैं तो सब अनदेखा कर देता हूँ, पर मेरी बीवी और बच्चों को अटपटा लगता है , उन्हें बुरा लगता है तो सब मुझ पर बरस पड़ते हैं, यार मैं तो यहां आता नहीं तो ही ठीक था, कम से कम इस दुख से तो छुटकारा मिल जाता, और भरम ही बना रहता कि माँ को मुझसे और बच्चों से प्यार है।" आनन्द ने बताया।
"आनन्द भाई ये तो आप पहले भी कई बार बता चुके हैं, आज कोई विशेष बात हुई क्या? आप आज सुबह से ही परेशान लग रहे हो।" प्रेम ने पूछा।
"यार, जैसे ही ऑफिस के लिए निकला, मेरे रिश्ते के एक चाचा घर आये, मैं जल्दी में था तो निकल आया, और चाचा जी मेरी माँ और भाई के पास बैठ गए, और बातें कर रहे थे, मैं ऑफिस में आकर काम लगा ही था कि तेरी भाभी का फोन आ गया, उसने बताया कि मेरी माँ और भाई चाचा को मेरी बुराई कर रहे थे, कहते हैं कि मैं माँ को सम्मान नहीं देता, और ख्याल नहीं रखता, उनकी पेंशन मांगता हूं, और दुख देता हूँ, जबकि ये तो तुम भी जानते हो, पिछले छह महीनों में मेरी माँ ने मेरे बच्चों को एक चॉकलेट तक नहीं लाकर दी, और पेंशन तो पापा की मिल ही रही है, वो सब माँ छोटे भाई और उसके बच्चों पर ही लुटा देती है, हमें उसकी पेंशन नहीं चाहिए पर मेरे बच्चों को कभी तो कुछ दे सकती है, इस बात का दुख है, मैं जब यहां आया तो माँ से कहा मेरे साथ रह ले, मगर वो इनकार कर गई मेरे साथ रहने से, खैर इन बातों से मुझे कोई फर्क नही पड़ता , पर यार आज चाचा जी के सामने उन्हें मुझे झूठा उलाहना नहीं देना चाहिए था, मुझे अच्छा नहीं लगा।" आनन्द ने पेग सिप करते हुये सारी बात बताई।
"आनंद भाई, ये तो ठीक नहीं हुआ झूठे ही किसी को बदनाम करना ठीक नहीं , उस दिन भी आपने बताया था कि आप और भाभी बाहर गए थे तो बच्चों को माँ के हवाले छोड़ कर गए थे , और माँ ने बच्चों को अलग कमरे में सुला दिया अकेले, और खुद छोटे भाई की पत्नी और बच्चों के साथ सोती रही ये तो गलत बात हुई, छोटे भाई के बच्चे तो अपनी मम्मी के पास थे ही, माँ को यूँ बच्चों को अकेला नहीं सुलाना चाहिए था।" प्रेम ने आनंद की बात का समर्थन किया।
इतने में आनंद के घर से फोन आ गया, और आनंद ने ये कहते हुए आखिरी पेग गटक लिया कि भाई अब तेरी भाभी का आखिरी अल्टीमेटम आ गया है, घर जाना ही है चल चलते हैं।
दोनों उठ खड़े हुए, और रेस्तरां से बाहर आकर अपनी अपनी बाइक संभालने लगे। प्रेम ने बाइक स्टार्ट की और घर की और निकल गया, मैं तो आनंद के साथ ही रही, उसके हाथ में टीका बनी हुई, रात में आनन्द की सबसे छोटी बेटी ईशिका ने मुझे आनंद के हाथ में लगा दिया था टीका सा, और बोली पापा देखते हैं मेरी हाथ का मेहंदी वाला टीका ज्यादा रचेगा या आपके हाथ का मेहंदी वाला टीका।
जी हाँ मैं मेहंदी ही हूँ, जो हर घर मे पाई जाती है, रचाई जाती है हाँ ये अलग बात है अभी तक प्रेम के घर मे मेरी पहुंच नहीं हुई है। मुझे ये इंतजार है मैं उसके घर कब पहुँचूंगी कब होगी प्रेम की मेहंदी की रस्म।
संजय नायक 'शिल्प'
क्रमशः