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समलैंगिक.....

मेरे दर्द की इंतेहा है,

ये समलैंगिक दास्तां है...

आसान नहीं है खुद को छुपा के एक ज़िन्दगी जीना,

जहाँ खून से पैर शन जाये ये वही रास्ता है...

मोहब्बत के शहर में हमें नफरत मिलती है,

दुनिया तो दूर हमें घर से ये आदत मिलती है...

मैं इश्क़ करू तो कैसे वो दगाबाज़ नहीं तो मज़बूर होगा,

कोई तो कारण होगा पर एक दिन मेरा सब कुछ मुझसे दूर होगा...

ये शौर, ये दौर एक मैं या #समलैंगिक कोई और ज़िन्दगी हमे दर्द ही नसीब है,

मैं तो दूर ही हूँ मुझसे जाने क्या मेरे करीब है...

ये चीखती खामोशियों का हर अल्फाज़ मंदा होगा,

पहले भी कई मर गये मौत उनकी राज ही रही

न सुधरे हालात तो आगे भी जाने कितने #समलैंगिक गले में फंदा होगा...

मैं रोता हूँ बिलखता हूँ और फिर खुद से लिपट के सोजाता हूँ, मैं कौन हूँ, क्या हूँ, किसका और कहाँ हूँ अक्सर इन सवालों में खोजाता हूँ...

ये डर का माहौल होता है मेरे लिये जो तुम हँसते हो मुझपे,

मैं क्या करू ? मैं हूँ ऐसा मेरा काबू नहीं खुद पे...

ठीक है संघर्ष भरा ये जहर मुझे पीने दो,

समलैंगिक हूँ तो क्या ? बस मुझे जीने दो...

किस्मत से ही जाने कितने ज़ख्म मिले उन्हें सीने दो,

और बहोत कुछ है समाज में बूरा उनपे ध्यान दो और हमें प्रेम से जीने दो...