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Chapter 2

(2)

मुकुंद ग्राम प्रधान के घर के सामने खड़ा था। दरवाज़ा खुलने पर घर के नौकर ने बताया कि प्रधान जी अभी घर पर नही हैं। लौटने में कुछ समय लगेगा। मुकुंद घर के सामने बने नीम के चबूतरे पर बैठ कर उनके लौटने की प्रतीक्षा करने लगा। सुबह स्टेशन मास्टर से जब उसने वसीमगढ़ में रहने के लिए कोई स्थान बताने की बात कही थी तो उसने बताया था कि वसीमगढ़ गांव में उसके रहने की व्यवस्था वहाँ के ग्राम प्रधान भवानी प्रसाद सिंह ही कर सकते हैं। अतः वह यहाँ उनसे मिलने आया था।

डेढ़ घंटे बस का सफर कर वह वसीमगढ़ पहुँचा था। रात से उसने सही तरह से खाया नहीं था। ज़ोरों की भूख लगी थी। वह मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि उसे कोई ढाबा मिल जाए।

ईश्वर ने उसकी प्रार्थना सुन ली। गांव से बाहर बस से उतरते ही सामने बोर्ड लगा दिखाई दिया 'धनीराम का ढाबा'। वह ऐसे खुश हुआ जैसे कि खजाने की खोज में निकले व्यक्ति को कोई बड़ा खजाना मिल जाए। ढाबे में भर पेट भोजन करने के बाद ही वह यहाँ आया था।

अगले दिन होने वाले उत्सव के कारण गांव में बहुत चहल पहल थी। लोग अपने अपने तरीके से उत्सव की तैयारी में व्यस्त थे। गांव के बीच में बने देवी मंदिर में एक विशेष पूजा होनी थी। हलांकी एक दो घरों को छोड़ कर शेष मकान कच्चे थे किंतु दीवारों पर सुंदर चित्रकारी की गई थी। मुकुंद सोच रहा था कि वह इस गांव में एक हफ्ता आराम से रह पाएगा। लेकिन सवाल था कि रहेगा कहाँ। यदि प्रधान ने कोई मदद नही की तो क्या होगा। वह मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना करने लगा कि ग्राम प्रधान उसे रहने की कोई जगह दिला दें।

करीब एक घंटे बाद प्रधान के घर के सामने एक जीप आकर रुकी। पीछे दो बंदूकधारी बैठे थे। जीप से एक रौबीला व्यक्ति उतरा। लंबा कद, भरा हुआ शरीर। चेहरे पर घनी मूंछें जो उसके रौब को और बढ़ा रही थीं। मुकुंद समझ गया कि यही भवानी प्रसाद हैं। उनके पास पहुँच कर उसने नमस्कार किया।

भवानी प्रसाद ने पहले उसे ऊपर से नीचे तक देखा। फिर भारी आवाज़ में पूँछा।

"कहिए कौन हैं आप ? क्या मदद करूँ आपकी ?"

प्रधान की आवाज़ पुरानी बॉलीवुड फिल्मों में दिखाए जाने वाले गांव के ठाकुर की तरह थी। रौब भी वैसा ही था।

मुकुंद ने उन्हें सारी बात बताने के बाद कहा।

"अगर यहाँ ठहरने की कोई जगह मिल जाती तो अच्छा होता। मैं तो यहाँ किसी को भी नही जानता।"

भवानी प्रसाद ने फिर उसी रौब के साथ कहा।

"इस मामले में मैं भी आपकी क्या मदद कर सकता हूँ।"

मुकुंद ने थोड़े चापलूसी वाले अंदाज़ में कहा।

"आप तो ग्राम प्रधान हैं। मदद कर दीजिए अन्यथा मैं कहाँ जाऊँगा।"

"देखते हैं क्या हो सकता है। आप यहीं इंतज़ार करें।"

कह कर भवानी प्रसाद अंदर चले गए।

मुकुंद फिर से उसी चबूतरे पर जाकर बैठ गया। भवानी प्रसाद ने जिस तरह से कहा था कि देखते हैं क्या हो सकता है। उससे मुकुंद को कुछ उम्मीद बंधी थी।

कुछ ही देर में ग्राम प्रधान का नौकर आया और उसे अपने साथ चलने का इशारा किया। मुकुंद ने अपना बैग उठाया और उसके पीछे पीछे चल दिया। नौकर उसे दूसरे रास्ते से घर के पिछले हिस्से में ले गया। वहाँ मवेशियों का बाड़ा था। कुछ ही आगे चल कर दो कमरे बने थे। एक कमरे का दरवाज़ा खोल कर नौकर उसे भीतर ले गया। कमरा छोटा था। बहुत दिनों से बंद रहने के कारण एक अजीब सी गंध भरी थी। कमरे में जाले लगे थे। कमरे में एकमात्र खिड़की थी जो बंद थी। खिड़की के पास एक चारपाई पड़ी थी।

कमरे की हालत बिल्कुल भी रहने के लायक नहीं थी। मुकुंद तो टीवी इंडस्ट्री में अपने संघर्ष के दिनों में भी कभी ऐसी जगह पर नहीं रहा था। पर यहाँ कोई और विकल्प नहीं था।

नौकर ने बाहर कुएं की तरफ इशारा कर कहा।

"वहाँ बाल्टी और रस्सी है। वहीं से पानी भर लीजिएगा।"

यह कह कर वह जाने लगा। मुकुंद ने उसे रोकते हुए कहा।

"भाई यहाँ बहुत गंदगी है।"

नौकर ने उसे ऐसे देखा जैसे कह रहा हो कि सर छुपाने की जगह मिल गई वह काफी नही है। अब नखरे कर रहे हो। मुकुंद उसके भावों को समझ गया।

"मेरा मतलब था कि एक झाड़ू मिल जाती तो मैं इस जगह को रहने लायक बना लेता।"

कुछ देर बाद नौकर एक झाड़ू दे गया। आधे घंटे की मेहनत कर मुकुंद ने कमरा साफ कर दिया। खिड़की खुलने से ताज़ी हवा के कारण महक भी कुछ कम हो गई। कुएं पर हाथ पैर धोने के बाद वह कुछ तरोताज़ा महसूस कर रहा था। वह चारपाई पर लेट गया। शाम ढल रही थी। कुछ ही देर में अंधेरा होने वाला था।

लेटे हुए वह सोच रहा था। कितना फर्क है उसके शहर और यहाँ की ज़िंदगी में। वहाँ तो आधी रात को भी कितनी चहल पहल रहती है। लोग दिन भर काम करने के बाद रात को ज़िंदगी का मज़ा लेने निकलते हैं। किंतु यहाँ तो दिन में जितनी सजीवता थी सूरज ढलते ही सब शांत सा लग रहा है। अभी तो शाम भी ठीक से नही ढली। वह यहाँ कैसे अपना वक्त काटेगा। उसे तो जल्दी सोने की आदत भी नहीं है।

उठकर उसने बल्ब जला दिया। कमरे में मद्धम पीली रौशनी फैल गई। उसने बैग से जासूसी उपन्यास निकाला और समय काटने के लिए पढ़ने लगा। पढ़ते पढ़ते ना जाने कब उसे नींद आ गई।

गर्मी की वजह से उसकी आँख खुल गई। जब वह उठा तो पसीने से तर था। घड़ी पर नज़र डाली तो रात के ग्यारह बजे थे। वह उठ कर कमरे में टहलने लगा। उसे थोड़ी थोड़ी भूख लगने लगी थी। अब तो ढाबा भी बंद हो गया होगा। उसके बैग में ग्लूकोज़ बिस्कुट का एक और पैकेट पड़ा था। वह बिस्कुट निकाल कर खाने लगा। खाने के बाद वह पानी पीने के लिए कुएं पर गया। पानी पीकर जब लौटने लगा तो उसे कुछ आवाज़ें सुनाई पड़ी। उसे आश्चर्य हुआ कि इतनी रात यह कैसी हलचल है। यह जानने के लिए कौतुहलवश वह मकान के सामने वाले हिस्से में आ गया। आड़ में खड़े होकर उसने देखा कि भवानी प्रसाद जीप में बैठ कर कहीं जा रहे थे।

उसे और अधिक आश्चर्य हुआ। इतनी रात को भवानी प्रसाद जा कहाँ रहे हैं। वह इसी उलझन में था। तभी पीछे से आवाज़ आई।

"आप इतनी रात यहाँ क्या कर रहे हैं ?'"

मुकुंद ने पीछे मुड़ कर देखा। वही नौकर था।

"नींद नही आ रही थी। इसलिए थोड़ा टहलने निकला था। वैसे प्रधान जी इस समय कहाँ गए हैं।"

नौकर ने उसे घूर कर देखा।

"आपके लिए इतनी रात गए यूं टहलना ठीक नही है। जाकर सो जाइए।"

मुकुंद वापस अपने कमरे में आ गया। वह सोंच रहा था कि आखिर इतनी रात भवानी प्रसाद जीप में बैठ कर कहाँ गए होंगे। वह नौकर भी उसे कैसे घूर रहा था। जैसे उसने मुकुंद को कोई बहुत गलत हरकत करते पकड़ लिया हो।

वह सोचने लगा कि यह जगह ही कुछ विचित्र सी है। दोपहर मे भी जब उसने गांव के एक व्यक्ति से पूंछा था कि वसीमगढ़ का किला किस तरफ है तो पहले तो उसने अजीब नज़रों से उसे देखा फिर बिना कुछ बोले पूरब की तरफ हाथ उठा कर इशारा कर दिया। उस वक्त तो उसे ठहरने की जगह तलाशनी थी। इसलिए गया नहीं। पर कल सुबह वह अवश्य ही जाएगा। वहाँ जाकर उस सपने का रहस्य जानने का प्रयास करेगा।

वह पुनर्जन्म आदी बातों पर यकीन नहीं करता था। पर जब उसने सपने में देखे गए किले की तस्वीरें इंटरनेट पर देखीं तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ। वह अपने जीवन में पहले कभी देश के इस हिस्से में नहीं आया था। जिस किले को उसने कभी देखा नहीं वह उसके सपने में कैसे आ सकता है। यह सवाल उसे बहुत परेशान कर रहा था। तभी वह देश के इस सुदूर हिस्से में आया था।

बहुत देर तक वह इसी सवाल के बारे में सोंचता रहा। अपने विचारों खोए ना जाने कब उसे नींद आ गई।