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सनातन गंगा

सनातन धर्म शाश्वत नियम है. जीवन के कुछ खास तत्व या बुनियादी पहलू हैं जो हमेशा लागू होंगे. सनातन धर्म का मतलब है कि हमारे पास इस बात की अंतर्दृष्टि है कि जीवन हमेशा कैसे कार्य करत सनातन धर्म शब्द का आज आम तौर पर गलत इस्तेमाल होता है. यह एक गलतफहमी है कि धर्म का मतलब मजहब होता है. धर्म का मतलब मजहब नहीं है, इसका मतलब नियम होता है. इसीलिए हम विभिन्न प्रकार के धर्मों की बात कर रहे हैं - गृहस्थ धर्म, स्व-धर्म और विभिन्न दूसरे किस्म के धर्म. मुख्य रूप से, धर्म का मतलब कुछ खास नियम होते हैं जो हमारे लिए इस अस्तित्व में कार्य करने के लिए प्रासंगिक हैं। आज, इक्कीसवीं सदी में, चीजों को संभव बनाने के लिए आपको अंग्रेजी जाननी होती है. यह एक सापेक्ष चीज है. हो सकता है कि पांच सौ से हजार सालों में, ये कोई दूसरी भाषा हो सकती है. हजार साल पहले ये एक अलग भाषा थी. वो आज के धर्म हैं - वो बदलते रहते हैं. लेकिन सनातन धर्म शाश्वत नियम है. जीवन के कुछ खास तत्व या बुनियादी पहलू हैं जो हमेशा लागू होंगे. सनातन धर्म का मतलब है कि हमारे पास इस बात की अंतर्दृष्टि है कि जीवन हमेशा कैसे कार्य करता है। कुछ दिन पहले मुझसे पूछा गया कि हम सनातन धर्म की रक्षा कैसे करें? वैसे, क्या सनातन धर्म को सुरक्षा की जरूरत है? नहीं, क्योंकि अगर वह शाश्वत है, तो मैं और आप उसकी सुरक्षा करने वाले कौन होते हैं? लेकिन इस सनातन धर्म तक कैसे पहुंचें और इन नियमों के जानकार कैसे हों, और उसे अपने जीवन में कैसे लागू करें. इन पहलुओं के बारे में आज की भाषा में, आज की शैली में, और आज के तरीके में बताए जाने की जरूरत है, ताकि यह इस पीढ़ी के लोगों को आकर्षक लगे. वे इसे इसलिए नहीं अपनाने वाले हैं क्योंकि आप इसे कीमती बता रहे हैं. आप इसे उनके दिमाग में नहीं घुसा सकते. आपको उन्हें इसकी कीमत का एहसास दिलाना होगा, आपको उन्हें यह दिखाना होगा कि यह कैसे कार्य करता है. सिर्फ तभी वे इसे अपनाएंगे. सनातन धर्म को सुरक्षा की जरूरत नहीं है. इसे जिए जाने की जरूरत है, इसे हमारी जीवनशैली के जरिए हम सब के अंदर जीवित रहना चाहिए. अगर हम ऐसा नहीं करते, तो इसकी रक्षा करने से ये अलग-थलग हो जाएगा। सनातन धर्म को मुख्य धारा में लाना ही मेरा प्रयास है. बिना धर्म शब्द को बोले, मैं इसे लोगों के जीवन में ला रहा हूंं, क्योंकि अगर इसे जीवित रहना है तो इसे मुख्य धारा बनना होगा. एक बड़ी आबादी को इसे अपनाना होगा. अगर बस थोड़े से लोग इसे अपनाते हैं और यह सोचते हैं कि वे बेहतर जानते हैं, और वे हर किसी से ऊंचे हैं, तो यह बहुत ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहेगा. हम इस संस्कृति के सबसे कीमती पहलू को, इस मायने में मार देंगे कि धरती पर यही एक संस्कृति है जहां उच्च्तम लक्ष्य मुक्ति है. हम स्वर्ग जाने की या भगवान की गोद में बैठने की योजना नहीं बना रहे हैं. हमारा लक्ष्य मुक्ति है, क्योंकि आप जो हैं, अगर आप उसके अंतरतम में गहरे खोजते हैं, तो आप समझेंगे कि इससे फर्क नहीं पड़ता कि यह चाहे सुख हो, ज्ञान हो, प्रेम हो, रिश्ते हों, दौलत हो, ताकत हो, या प्रसिद्धि हो, एक मुकाम पर आप इनसे ऊब जाएंगे. जो चीज सचमुच मायने रखती है वो आजादी है, और इसीलिए यह संस्कृति महत्वपूर्ण है - बस आज के लिए ही नहीं, बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए भी। अतीत में लोग सनातन धर्म के लिए वाकई तैयार नहीं थे, क्योंकि हर पीढ़ी में सिवाय कुछ लोगों के, बड़े पैमाने पर कोई बौद्धिक विकास नहीं था. तभी तो वे कभी यह नहीं समझ सके कि आजाद होने का क्या मतलब होता है, उन्होंने सिर्फ सुरक्षा खोजी. अगर आप धरती पर सारी प्रार्थनाओं पर गौर करें, तो उनमें से नब्बे प्रतिशत सिर्फ इस बारे में हैं - ‘मुझे यह दीजिए, मुझे वह दीजिए, मुझे बचाइए, मेरी रक्षा कीजिए!’ ये प्रार्थनाएं मुक्ति के बारे में नहीं हैं, वे जीवन-संरक्षण के बारे में हैं। लेकिन आज, मानव बुद्धि इस तरह से विकास कर रही है कि कोई भी चीज जो तर्कसंगत नहीं है, वो दुनिया में नहीं चलेगी. लोगों के मन में स्वर्ग ढह रहे हैं, तो ये आश्वासन कि ‘मैं तुम्हें स्वर्ग ले जाऊंगा,’ काम नहीं करने वाला है. अब कोई भी स्वर्ग नहीं जाना चाहता.  सनातन धर्म के लिए यह सही समय है. यही एकमात्र संस्कृति है जिसने मानवीय प्रणाली पर इतनी गहाराई से गौर किया है कि अगर आप इसे दुनिया के सामने ठीक से प्रस्तुत करें, तो ये दुनिया का भविष्य होगी. सिर्फ यही चीज है जो एक विकसित बुद्धि को आकर्षित करेगी, क्योंकि ये कोई विश्वास प्रणाली नहीं है. यह खुशहाली का, जीने का और खुद को आजाद करने का एक विज्ञान और टेक्नालॉजी है. तो सनातन धर्म कोई अतीत की चीज नहीं है. यह हमारी परंपरा नहीं है. यह हमारा भविष्य है।

Nilmani · Politique et sciences sociales
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राम नाम

भगवान शिव ने 'राम-नाम' कण्ठ में क्यों धारण किया है ?

माता पार्वती भगवान शंकर से पूछती हैं,,,,,

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*प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥

सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥

भावार्थ:-हे प्रभो! जो परमार्थतत्व (ब्रह्म) के ज्ञाता और वक्ता मुनि हैं, वे श्री रामचन्द्रजी को अनादि ब्रह्म कहते हैं और शेष, सरस्वती, वेद और पुराण सभी श्री रघुनाथजी का गुण गाते हैं॥

*तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥

रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥

भावार्थ:-और हे कामदेव के शत्रु! आप भी दिन-रात आदरपूर्वक राम-राम जपा करते हैं- ये राम वही अयोध्या के राजा के पुत्र हैं? या अजन्मे, निर्गुण और अगोचर कोई और राम हैं?॥

त्रिलोकी में यदि श्रीराम का कोई सबसे बड़ा भक्त या उपासक है तो वे हैं भगवान शिव जो 'राम-नाम' महामन्त्र का निरन्तर जप करते रहते हैं ।

भगवान शिव ने 'राम-नाम' कण्ठ में क्यों धारण किया है ?

रामायण के सबसे प्राचीन आचार्य भगवान शिव ही हैं । उन्होंने राम-चरित्र का वर्णन सौ करोड़ श्लोकों में किया । शिवजी ने देवता, दैत्य और ऋषि-मुनियों में इन श्लोकों का समान बंटबारा किया तो हर एक के हिस्से में तैंतीस करोड़, तैंतीस लाख, तैंतीस हजार, तीन सौ तैंतीस श्लोक आए । एक श्लोक शेष बचा । देवता, दैत्य और ऋषि—ये तीनों एक श्लोक के लिए लड़ने-झगड़ने लगे । यह श्लोक बत्तीस अक्षर वाले अनुष्टुप छन्द में था । शिवजी ने देवता, दैत्य और ऋषि-मुनियों—प्रत्येक को दस-दस अक्षर दे दिए । तीस अक्षर बंट गए और दो अक्षर शेष रह गए । तब भगवान शिव ने देवता, दैत्य और ऋषियों से कहा—

'मैं ये दो अक्षर मैं किसी को भी नहीं दूंगा । इन्हें मैं अपने कण्ठ में रखूंगा ।'

ये दो अक्षर 'रा' और 'म' अर्थात् 'राम-नाम' हैं । यह 'राम-नाम' रूपी अमर-मन्त्र शिवजी के कण्ठ और जिह्वा के अग्रभाग में विराजमान है ।

भगवान शिव को 'र' और 'म' अक्षर क्यों प्रिय हैं ?

ऐसा माना जाता है कि सती के नाम में 'र'कार अथवा 'म'कार नहीं है, इसलिए भगवान शिव ने सती का त्याग कर दिया । जब सती ने पर्वतराज हिमाचल के यहां जन्म लिया, तब उनका नाम 'गिरिजा'(पार्वती) हो गया । इतने पर भी 'शिवजी मुझे स्वीकार करेंगे या नहीं'–ऐसा सोचकर पार्वतीजी तपस्या करने लगीं । जब उन्होंने सूखे पत्ते भी खाने छोड़ दिए, तब उनका नाम 'अपर्णा' हो गया । 'गिरिजा' और 'अपर्णा'–दोनों नामों में 'र'कार आ गया तो भगवान शिव इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने पार्वतीजी को अपनी अर्धांगिनी बना लिया । इसी तरह शिवजी ने गंगा को स्वीकार नहीं किया परन्तु जब गंगा का नाम 'भागीरथी' पड़ गया, (इसमें भी 'र'कार है) तब शिवजी ने उनको अपनी जटा में धारण कर लिया । इस प्रकार राम-नाम में विशेष प्रेम के कारण भगवान शिव दिन-रात राम-नाम का जप करते रहते हैं।

तुम्ह पुनि राम राम दिन राती।

सादर जपहु अनंग आराती।। (मानस १।१०८।४)

राम-नाम प्रेमी भगवान शिव को राख (भस्म) और मसान (श्मशान) क्यों प्रिय हैं ?

भगवान शिव को राख और मसान इसलिए प्रिय हैं क्योंकि राख में 'रा' और मसान में 'म' अक्षर है जिनको जोड़ देने से 'राम' बन जाता है और भगवान शिव का राम-नाम पर बहुत स्नेह है ।

एक बार कुछ लोग एक मुरदे को श्मशान ले जा रहे थे और 'राम-नाम सत्य है' ऐसा बोल रहे थे । शिवजी ने राम-नाम सुना तो वे भी उनके साथ चल दिए । जैसे पैसों की बात सुनकर लोभी आदमी उधर खिंच जाता है, ऐसे ही राम-नाम सुनकर भगवान शिव का मन भी उन लोगों की ओर खिंच गया । अब लोगों ने मुरदे को श्मशान में ले जाकर जला दिया और वहां से लौटने लगे । शिवजी ने विचार किया कि बात क्या है ? अब कोई आदमी राम-नाम ले ही नहीं रहा है । उनके मन में आया कि उस मुरदे में ही कोई करामात थी, जिसके कारण ये सब लोग राम-नाम ले रहे थे, अत: मुझे उसी के पास जाना चाहिए । शिवजी ने श्मशान में जाकर देखा कि वह मुरदा तो जलकर राख हो गया है । अत: शिवजी ने उस मुरदे की राख अपने शरीर में लगा ली और वहीं मसान में रहने लगे । किसी कवि ने कहा है–

बार-बार करत रकार व मकार ध्वनि,

पूरण है प्यार राम-नाम पे महेश को।।

कण्ठ में 'राम-नाम' की शक्ति से भगवान शिव द्वारा हलाहल का पान!!!!!!!!

नाम प्रभाव जान सिव नीको ।

कालकूट फलु दीन्ह अमी को ।। (राचमा १।१९।८)

जब देवताओं और असुरों के द्वारा समुद्र-मंथन किया गया तो सर्वप्रथम उसमें से हलाहल विष प्रकट हुआ, जिससे सारा संसार जलने लगा । देवता और असुर भी उस कालकूट विष की ज्वाला से दग्ध होने लगे । इस पर भगवान विष्णु ने भगवान शिव से कहा कि 'आप देवाधिदेव और हम सभी के अग्रणी महादेव हैं । इसलिए समुद्र-मंथन से उत्पन्न पहली वस्तु आपकी ही होती है, हम लोग सादर उसे आपको भेंट कर रहे हैं ।'

भगवान शिव सोचने लगे–'यदि सृष्टि में मानव-समुदाय में कहीं भी यह विष रहे तो प्राणी अशान्त होकर जलने लगेगा । इसे सुरक्षित रखने की ऐसी जगह होनी चाहिए कि यह किसी को नुकसान न पहुंचा सके । लेकिन, यदि हलाहल विष पेट में चला गया तो मृत्यु निश्चित है और बाहर रह गया तो सारी सृष्टि भस्म हो जाएगी, इसलिए सबसे सुरक्षित स्थान तो स्वयं मेरा ही कण्ठप्रदेश है ।'

भगवान विष्णु की प्रार्थना पर जब शिवजी उस महाविष का पान करने लगे तो शिवगणों ने हाहाकार करना प्रारम्भ कर दिया। तब भगवान भूतभावन शिव ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा–

'भगवान श्रीराम का नाम सम्पूर्ण मन्त्रों का बीज-मूल है, वह मेरा जीवन है, मेरे सर्वांग में पूर्णत: प्रविष्ट हो चुका है, अत: अब हलाहल विष हो, प्रलय की अग्नि की ज्वाला हो या मृत्यु का मुख ही क्यों न हो, मुझे इनका किंचित भय नहीं है ।'

इस प्रकार राम-नाम का आश्रय लेकर महाकाल ने महाविष को अपनी हथेली पर रखकर आचमन कर लिया किन्तु उसे मुंह में लेते ही भगवान शिव को अपने उदर में स्थित चराचर विश्व का ध्यान आया और वे सोचने लगे कि जिस विष की भयंकर ज्वालाओं को देवता लोग भी सहन नहीं कर सके, उसे मेरे उदरस्थ जीव कैसे सहन करेंगे? यह ध्यान आते ही भगवान शिव ने उस विष को अपने गले में ही रोक लिया, नीचे नहीं उतरने दिया जिससे उनका कण्ठ नीला हो गया, जो दूषण (दोष) न होकर उनके लिए भूषण हो गया।

कुछ लोगों का कहना है कि भगवान शिव द्वारा हलाहल विष का पान करना पार्वतीजी के स्थिर सौभाग्य के कारण हुआ और कुछ अन्य लोगों के अनुसार यह भगवान शिव के कण्ठ में राम-नाम है, उसी के प्रभाव के कारण संभव हुआ था ।