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अध्याय 1 (31 से47) अध्याय 2 गीता सार श्लोक 1 से 7 तक

 

 

(अध्याय 1) श्लोक 31 से  47  तथा (अध्याय 2 ) 1 से 7 तक

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श्लोक 31

 

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।

 न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता।

 

 

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श्लोक  32

 

न काङ्‍क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।

 किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है?

 

 

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श्लोक 33

 

येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।

 त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं।

 

 

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श्लोक 34 

 

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।

मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं।

 

 

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श्लोक 35

 

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।

अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?

 

 

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श्लोक 36

 

निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।

पापमेवाश्रयेदस्मान्‌ हत्वैतानाततायिनः॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा।

 

 

 

::::::::::::::::::::::::::: जय श्री कृष्ण::::::::::::::::::::::::::::::::::::

 

श्लोक 37

 

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्‌।

स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?

 

 

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श्लोक38 और 39

 

 

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।

कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्‌॥

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्‌।

कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए?

 

 

:::::::::::::::::::::::जय श्री राधे कृष्णा:::::::::::::::::::::::::::::::

 

 

श्लोक40

 

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।

धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है।

 

 

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श्लोक 41

 

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।

स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

 

हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है।

 

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श्लोक 42

 

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।

पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं।

 

 

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श्लोक 43

 

 

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः।

उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं।

 

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श्लोक 44 

 

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।

नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

हे जनार्दन! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चितकाल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आए हैं।

 

 

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श्लोक 45

 

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्‌।

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

हा! शोक! हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गए हैं।

 

 

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श्लोक 46

 

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।

धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्‌॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा।

 

 

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श्लोक 47

 

संजय उवाच

एवमुक्त्वार्जुनः सङ्‍ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्‌।

विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

संजय बोले- रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गए।

 

 

:::::::::::::::::::::::::::::::::::::जय श्रीकृष्ण::::::::::::::::::::::::::

 

:::::::::::::::::::::::::::::::::राधे कृष्णा::::::::::::::::::::::::::::::

 

 

 

अध्याय 2 

 (गीता का सार)

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( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

 

 

श्लोक 1

 

 संजय उवाच

 तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्‌।

विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

संजय बोले- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा।

 

 

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श्लोक 2

 

श्रीभगवानुवाच

 

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्‌।

 अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।

 

 

हिन्दी अनुवाद_

 

 

श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है।

 

 

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श्लोक 3

 

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।

क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥

 

 

हिन्दी अनुवाद_

 

 

इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा।

 

 

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श्लोक 4

 

अर्जुन उवाच

 कथं भीष्ममहं सङ्‍ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।

इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं।

 

 

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श्लोक 5

 

गुरूनहत्वा हि महानुभावा-

ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।

हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव

भुंजीय भोगान्‌ रुधिरप्रदिग्धान्‌॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा।

 

 

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श्लोक 6

 

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-

 यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।

 यानेव हत्वा न जिजीविषाम-

 स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः॥

 

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और न करना- इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं।

 

 

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श्लोक 7

 

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः

पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।

यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे

शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए।

 

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जय श्रीकृष्ण जय श्रीकृष्ण जय श्रीकृष्ण जय श्रीकृष्ण 

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