मूर्ति ने सारा दर्द अपने अंदर समेट लिया और वक़्त के साथ बढ़ जाने का सोचा। उसकी जिंदगी मे खुशियों के नाम पर रोहिणी थी। मूर्ति की बात करूं तो वह रंग रूप मे ज़्यादा आकर्षक नहीं थी, इसलिए स्कूल मे जब बाकी बच्चे इश्क़बाज़ी करते थे, वो तब पढ़ाई करती थी। बहुत ही साधारण सा जीवन था। सुबह उठ कर स्कूल जाना और दोपहर को घर लौटना, फिर खाना खा कर हल्की सी झपकी लेना। शाम होते ही संगीत विद्यालय जाना। फिर वहा से लौट कर पढ़ाई एक दो घंटे पढ़ाई करना। छठी कक्षा मे आकर मूर्ति की संगीत शिक्षा पूर्ण हुई। मूर्ति अब सिर्फ स्कूल और पढ़ाई और कभी-कभी परिवार और रोहिणी के साथ यहाँ वहाँ घूमना।
ऐसे ही वक़्त पंख लगाकर उड़ने लगा और समय आया जब मूर्ति दसवीं कक्षा की छात्रा हो गयी। बचपन से ही उसके मन में डॉक्टर बनने का सपना था और ये उस सपने का पहला पड़ाव है। और मूर्ति जुट गयी मेहनत करने मे। अखिरकार वो घड़ी आ गयी जब परीक्षा में बैठना था। परीक्षाएँ खत्म हो गयी। और दो महीने की अवकाश मिल गयी। मूर्ति ने इस दौरान सच में जी भरकर आराम किया। रोज़ के समय सारणी से हट कर थोड़ा अलग से रहना। ऐसे ही राज़ी खुशी से ये दिन कट गए और घड़ी आ गयी परिणाम की। जैसे ही परिणाम की घोषणा हुई, मूर्ति और उसके माता पिता उल्लास से भर उठे। उधर रोहिणी के भी अंक बहुत अच्छे थे।
इन्ही सब खुशी और प्रसन्नता की चर्चा मे तो एक अहम बात तो नज़रंदाज़ कर गए, जैसा कि हमने कहा कि मूर्ति को एक लंबा अवसर मिला, और वो बिल्कुल ही आनंद से स्वतंत्र समय सारणी से चलने लगी। उसमे एक उल्लेखनीय बदलाव आया। वो अब पहले जैसी नहीं रही, उसका रूप रंग, गठन सम्पूर्ण रूप से बदल गया। किसी चमत्कार जैसे वो रातोरात एक आकर्षणीय लड़की मे बदल गयी।
ग्यारहवीं कक्षा में दाखिला करने गयी तो जैसे आसपास थम सा गया। उसने विज्ञान शाखा मे अपना दाखिला करवाया। रोहिणी ने भी उसी शाखा में अपना दाखिला करवाया।
देखते ही देखते, मूर्ति की प्रसिद्धता बढ़ती गयी। एक लड़का था सोमनाथ, जो उसका दोस्त था मगर दिल ही दिल में प्यार करता था उससे। दूसरी ओर मूर्ति के स्कूल का कम्प्युटर का शिक्षक भी उसे पसंद करता था।
मूर्ति स्कूल के तरफ से कई जगह गयी, कभी संगीत प्रतियोगिता, कभी नृत्य तो कभी कुछ। मतलब उसका नाम हर किसीके लबों पे था, बच्चों से लेकर, टीचर तक ऐसा कोई नहीं जो मूर्ति को नहीं जानता था।
मूर्ति को ये सब में ज़्यादा मन नहीं था क्योंकि उसे पढ़ाई में ज़्यादा दिलचस्पी थी। लेकिन रोहिणी अलग थी ईन मामलों में, उसने मूर्ति को ज़िन्दगी जीना सिखाया। और बताया कि ज़िन्दगी मे हर रंग का होना ज़रूरी है। मूर्ति उसकी सुनती थी पर डरती भी थी। लेकिन जल्द ही वो डरना भूल गयी और समय के साथ जिंदगी जीने लगी। बारहवीं मे जब पहुंची तब पढ़ाई का थोड़ा बोझ पड़ने लगा। लेकिन मूर्ति की तैयारी भी मज़बूत थी। इसी दौरान एक अन्तः स्थायी स्कूलों मे एक चित्रकला प्रतियोगिता रखा गया। सोमनाथ और मूर्ति ने भी अपना नाम पंजीकृत करवाया, साथ और भी लगभग 20 बच्चे थे। बस मे मूर्ति ने अपनी जगह ले ली, और सोमनाथ ठीक इसके पीछे वाली सीट पर बैठ गया। वहाँ पहुँच कर दोनों ने बहुत बातें किए। वो दोनों अच्छे दोस्त थे। प्रतियोगिता भी अच्छी रही और परिणाम स्कूल मे ही पता चलना था। उसी रात जब सोमनाथ और मूर्ति बस मे बैठे तो सोमनाथ ने थोड़ा पास आ कर मूर्ति की चुंबन लेनी चाही पर मूर्ति ने रोक दिया। सोमनाथ भी शर्मिंदा हो गया।
फिर कुछ दिनों तक दोनों के बीच थोड़े तनाव रहे लेकिन एक दो हफ्ते बाद सब पुनः ठीक हो गया। रोहिणी को जब मूर्ति ने ये बात बतायी तो रोहिणी ने उसके सर के पीछे मारा और कहा, "पागल है क्या?, ऐसा मौका कौन छोड़ता है?"
मूर्ति ने उसे कहा, "चुप हो जा! ऐसे कैसे मतलब खुद को खो दूँ मैं? क्या भरोसा है कि प्यार ही है"?
ऐसे ही बारहवीं की परीक्षा खतम हुई और परिणाम की घोषणा हुई।