बुशरा
भाग-1
टिंग-टोंग...
डोरबेल बजी तो कुछ ही देर बाद किरण ने दरवाज़ा खोला।
सामने अमन था।
किरण- अमन! अच्छा हुआ तू आ गया। मेरी जान छुड़वा इनसे।
अमन को देखते ही राहत भरी सांस लेकर बोली किरण तो उसने हैरानी से पूछा।
अमन- क्यों, क्या हुआ?
किरण- सुबह से किचन में घुसे हुए हैं।
अमन- क्यों?
किरण- चाय बनानी सिखा रहे हैं मुझे।
कहा उसने झुंझलाते हुए तो ये सुन और किरण का चेहरा देखकर अमन की हंसी छूट गई।
अमन- इस आदमी का कुछ नहीं हो सकता।
कहते हुए वो अंदर आया और किरण दरवाज़ा बंद करने लगी।
अमन एक लेखक है और किरण उसकी बहुत अच्छी दोस्त। दोनों साथ पढ़ते थे।
किरण एक अनाथ आश्रम में पली-बढ़ी है और स्कॉलरशिप लेकर यूनिवर्सिटी पढ़ने गई थी।
पढ़ाई में बहुत होशियार थी वो।
किरण को ज़िंदगी ने बहुत दुख दिए, लेकिन शादी के बाद ये ख़ुद को बहुत ख़ुशनसीब मानती है कि उसे इतना प्यार करने वाला पति मिला।
अमन किचन के सामने पहुंचकर समीर साहब से मुस्कुराते हुए बोला।
अमन- समीर साहब!
वो अमन की ओर पलटे और मुस्कुराते हुए बोले।
समीर- अरे! आ गए तुम?
अमन- मैं तो आ गया, अब आप भी रसोई से बाहर आ जाइए। किरण बहुत अच्छी चाय बनाती है।
कहा उसने हंसते हुए तो समीर साहब झल्लाकर बोले।
समीर- क्या ख़ाक अच्छी बनाती है? ना टेस्ट, ना अरोमा।
अमन- चाय में भी अरोमा होता है?
पूछा उसने हैरानी से तो समीर साहब अपने उसी अंदाज़ में बोले।
समीर- अब तुम लोगों को क्या-क्या बताऊं?
छोड़ो, पीयो यही उबला, मीठा पानी।
अमन- लेकिन आप तो चाय पीते ही नहीं।
समीर- कभी पीनी पड़ जाए तो?
अमन- हां! वो अलग बात है।
समीर साहब।
एक विशाल व्यक्तित्व के धनी। अपने मां-बाप के एकलौते।
भरे-पूरे कुनबे से सिर्फ़ एक ज़िद की वजह से नाता तोड़कर अपने माता-पिता के साथ शहर में आ बसे, कि शादी करनी है तो किसी अनाथ से।
उम्र पैंतालिस, तज़ुर्बा नब्बे।
बाहर नौकरी करते थे, जब एक हादसे में मां-बाप को खो दिया तो वापस अपने शहर आ गए और एक कॉलेज में पढ़ाने लगे।
सबसे मुस्कुराकर मिलते हैं लेकिन किसी से ज़्यादा मेल-जोल नहीं रखते ।
अमन से भी इसलिए खुले हैं क्योंकि वो किरण का दोस्त है।
उनका मुस्कुराता चेहरा और कहीं खोई हुई आंखें, अमन को हमेशा कचोटती रहतीं थीं।
सीधे-सीधे तो नहीं, लेकिन कई बार उसने इसकी वजह जानने की कोशिश की पर समीर साहब की तेज़ निगाहों से बच नहीं पाया और उसे एक दिन बुला लिया वो सब राज़ खोलने।
दोनों बातें करते हुए ड्राइंगरूम में चले गए।
बैठे ही थे कि तभी किरण चाय ले आई और समीर साहब की ओर ट्रे बढाई तो वो झल्लाते हुए बोले।
समीर- इसे दो ये उबला पानी।
कहा उन्होंने अमन की ओर इशारा करते हुए तो किरण झुंझलाकर बोली।
किरण- आपको मेरे हाथ की चाय कभी पसंद आएगी ही नहीं।
समीर- अरे ग़ुस्सा क्यों होती हो? तुम कहो तो ज़हर पी लूं, ये तो चाय है!
कहा उन्होंने मुस्कुराते हुए तो किरण हल्की नाराज़गी में बोली।
किरण- आपसे सिर्फ़ दिल बहलवालो।
समीर- अच्छा बैठो, तुम दोनों को एक कविता सुनाता हूं।
अमन- लेकिन...
समीर- पहले कविता सुनो।
कहा समीर साहब ने एकदम गंभीरता से तो अमन सकपका गया और बोला।
अमन- जी!
समीर- सूरज उगता है, ये धरा की जीत है,
क्योंकि सूरज उसका मनमीत है।
लेकिन तभी शबनमी रात आती है, संग चांद को लिए,
और सहलाती है धरती के ज़ख़्मों को,
यही तो उनकी प्रीत है।
लेकिन कहीं दूर कोई ये भी सोचता है,
क्या फ़र्क़ पड़ेगा, कोई मरे या कटे,
अच्छा है, कम से कम धरती का बोझ ही घटे,
और ये दुनिया की रीत है।
लेकिन नहीं।
सूरज जल्द ही ढल जाएगा,
और उसके साथ ही मेरा अस्तित्व जल जाएगा।
रोकना होगा।
रोकना होगा सूरज को ढल जाने से,
किसी को कहीं खो जाने से,
रोकना ही होगा स्वयं को स्वयं से बिछुड़ जाने से।
लेकिन यहां तो मैं ही नहीं, मैं हूं कहां?
बहुत दूर।
हर रंग में, हर कण में, किसी के तन में, उसके मन
रमा बैठा है वहां और वो है यहां।
मैं उसे बुलाऊंगा,
स्वयं को स्वयं से मिलवाऊंगा।