*प्रभु समर्पण*
एक शूद्र महिला, रानी रासमणि ने मंदिर बनवाया। चूंकि वह शूद्र थी और छोटी जाती की थी। उसके मंदिर में कोई ब्राह्मण पूजा करने को राजी न हुआ। रासमणि, खुद भी कभी मंदिर में अंदर नहीं गई थी, क्योंकि कहीं मंदिर अपवित्र न हो जाए!
दक्षिणेश्वर का विशाल मंदिर उसने बनाया, लेकिन कोई पुजारी नहीं मिल रहा था। रासमणि शूद्र थी, इसलिए वह खुद पूजा न कर सकती थी। मंदिर बिना पूजा के रह जाएगा? वह बड़ी दुखी थी। उसने सभी ब्राह्मणों से बात करी कि कोई पुजारी भेज दो!फिर किसी ने खबर दी कि गदाधर नाम का एक ब्राह्मण लड़का है, वह दिमाग से थोड़ा ठीक नहीं है। शायद वह राजी हो जाए। गदाधर को पूछा, तो उसने कहा, ठीक है। उसने एक बार भी न नहीं कहा, कि ब्राह्मण होकर मैं शूद्र के मंदिर में कैसे जाऊं? गदाधर के घर में उसको सभी ने रोका, मित्रों ने भी कहा कि कहीं और नौकरी दिला देंगे। नौकरी के पीछे अपने धर्म को खो रहा है? पर गदाधर ने कहा, नौकरी का सवाल नहीं है; भगवान बिना पूजा के रह जाएं, यह बात जंचती नहीं; ।खबर रासमणि को मिली कि यह पूजा तो करेगा, लेकिन पूजा में यह दीक्षित नहीं है। इसने कभी पूजा नहीं की है। इसकी पूजा का कोई शास्त्रीय ढंग, विधि-विधान नहीं है। और इसकी पूजा भी जरा अनूठी है। कभी करता है, कभी नहीं भी करता। कभी दिन भर करता है। एक और खबर आई कि यह पूजा करते वक्त पहले खुद भोग लगा लेता है, फिर भगवान को लगाता है। रासमणि ने कहा, अब आने दो। कम से कम कोई तो आ रहा है।वह आया, लेकिन ये गड़बड़ें शुरू हो गईं। कभी पूजा होती, कभी नहीं होती।कभी दिन बीत जाते, दीया न जलता; और कभी ऐसा होता कि सुबह से प्रार्थना चलती तो नाचते ही रहते गदाधर।
रासमणि ने कहा कि यह कैसे होगा? उन्होंने बैठक बुलाई और गदाधर से पुछा कि यह किस तरह की पूजा है? किस शास्त्र में लिखी है?
गदाधर ने कहा, "शास्त्र से पूजा का क्या संबंध? पूजा प्रेम की है। जब मन ही नहीं होता करने का, तो करना गलत होगा। और वह तो पहचान ही लेगा कि बिना मन के किया जा रहा है या मन से। तुम्हारे लिए थोड़े ही पूजा कर रहा हूं। उसको मैं धोखा न दे सकूंगा। जब भाव उठता है, तो परमात्मा पहचान भी लेगा। बिना भाव के पूजा तो जैसे भगवान को धोखा दे रहा हूं। जब उठता है भाव तो इकट्ठी कर लेता हूं। दो तीन सप्ताह की एक दिन में निपटा देता हूं। लेकिन बिना भाव के मैं पूजा नहीं कर सकता।
रासमणि ने पुछा,"तुम्हारा कुछ विधि-विधान नहीं मालूम पड़ता। कहां से शुरू करते हो और कहां अंत करते हो।
गदाधर ने कहा, वह जैसा करवाता है, वैसा हम करते हैं। हम अपना विधि-विधान उस पर थोपते नहीं। यह कोई क्रियाकांड नहीं है, पूजा है। यह प्रेम है। रोज जैसी भाव-दशा होती है, वैसा होता है। कभी पहले फूल चढ़ाते हैं, कभी पहले आरती करते हैं। कभी नाचते हैं, कभी शांत बैठते हैं। कभी घंटा बजाते हैं, कभी नहीं भी बजाते। जैसा आविर्भाव होता है भीतर, जैसा वह करवाता है, वैसा करते हैं। हम कोई करने वाले नहीं ।रासमणि ने पुछा," यह तो बात गुनाह की है कि तुम पहले खुद चख लेते हो, फिर भगवान को भोग लगाते हो!पहले भगवान को भोग लगाओ, फिर प्रसाद ग्रहण करो। तुम भोग खुद को लगाते हो, प्रसाद भगवान को देते हो। ऐसा क्यों करते हो?गदाधर ने कहा," मेरी मां जब कुछ बनाती थी तो पहले खुद चख लेती थी, फिर मुझे देती थी। पता नहीं, देने योग्य है भी या नहीं। कभी मिठाई में शक्कर ज्यादा होती है तो कभी शक्कर होती ही नहीं, जब मुझे ही नहीं जंचती, तो भगवान को कैसे प्रीतिकर लगेगी?
ऐसे प्रेम से जो भक्ति उठती है,
उसका कोई बंधा हुआ ढांचा नहीं हो सकता। प्रेम भी कहीं ढांचे में नहीं हुआ है? पूजा का भी कहीं कोई शास्त्र नहीं है? प्रार्थना की भी कोई विधि नहीं है? वह तो भाव का भूखा है। मेरे में जो भाव उठते हैं मैं तो वैसे ही पूजा करूंगा।
गदाधर की बात सुनकर, रासमणि के पास अब प्रश्न के लिए कोई शब्द नहीं थे।
यह गदाधर ही बाद में रामकृष्ण बने।
परमात्मा केवल भाव के भूखे हैं, सच्चे दिल पर साहिब राजी।
तन और मन को स्वस्थ रखने के लिए परमात्मा के साथ सच्चा प्रेम चाहिए।
कृष्ण जी ने गीता में कहा है की," जब तक तू यह सोचता है की यह सब मेरे हैं तो जो मेरा है वह तेरा हो नहीं सकता और जब तू अपना सब कुछ मुझे सौंप देगा तो जो मेरा है वह सब तेरा हो जाएगा।
*जय श्री कृष्णा*... 🙏