महाराज धनानन्द ने लोगों की बातों की परवाह किए बिना ही अपने पीछे खड़े एक व्यक्ति का हाथ पकड़ा और उन्हें सामने ले आए. उसके बाद उन्होंने उस व्यक्ति की तरफ इशारा कर भीड़ से कहा, "आपलोग इन्हें तो अवश्य ही जानते होंगे. अगर नहीं जानते हैं तो आपको बता दूँ, ये आचार्य चणक के परममित्र आचार्य विजयव्रत हैं. अब ये स्वयं आपको सच से अवगत कराएंगे."
"आचार्य विजयव्रत !!" उन्हें वहां देखकर बाकी लोग और खुद आचार्य चणक भी चकित थे. आचार्य चणक की तरह ही आचार्य विजयव्रत मगध में दर्शनशास्त्र पढ़ाने के लिए प्रसिद्द थे.
तभी धनानंद विजयव्रत की तरफ मुड़े और बोले, "बताएं आचार्य, लोगों को सत्य से अवगत कराएं. कहीं आचार्य चणक के असत्य में फंसकर हमारी मगध की जनता अन्धकार की तरफ ना बढ़ने लगे."
आचार्य विजयव्रत के चेहरे पर भय साफ दिखाई दे रहा था लेकिन उन्होंने अपने चेहरे के भय को छिपाते हुए कहना आरंभ किया- "आचार्य चणक आपलोगों से असत्य कह रहे हैं. महामंत्री सत्तार के घर से कर चोरी का सिक्का प्राप्त हुआ है. इसलिए उन्हें राजद्रोह के आरोप में कारावास में डाला गया है. लेकिन महामंत्री के घर से उतने सिक्के बरामद नहीं हुए जितने होने चाहिए. अपितु कुछ सिक्के महामंत्री के परममित्र आचार्य चणक के घर से अभी अभी बरामद हुए हैं जो मैंने स्वयं अपनी आखों से देखा है."
उनका इतना कहना था कि धनानंद ने उन्हें बगल हटा दिया और फिर बोले, "संभवत: आपलोगों को ज्ञात हो चूका है कि राजद्रोह के लिए जितना दोषी महामंत्री सत्तार हैं, उनसे कहीं ज्यादा दोषी आचार्य चणक हैं जिन्होंने सत्य जानते हुए भी राजद्रोही का साथ दिया और मगध की जनता को राज्य के विरुद्ध किया. मेरी आप सभी से निवेदन है कि आप इन राजद्रोही का साथ ना दें, अन्यथा राजद्रोह के आरोप में आप सभी को बंदी बना लिया जाएगा।"
महाराज धनानन्द नीचे आ गए और लोगों के वहां से हटने की प्रतीक्षा करने लगे. लोग अब सोच में पड़ चुके थे कि किसकी बातों पर विश्वास करें। आखिरकार कुछ लोग आचार्य विजयव्रत की बातों पर विश्वास कर वहां से खिसकने लगे.
वहीँ कुछ लोगों को आचार्य चणक पर अब भी विश्वास था इसलिए वो वहीँ खड़े रहे, परन्तु अब संख्या बहुत कम हो चुकी थी इसलिए उन्हें वहां से हटाना आसान हो चूका था. वहां भीड़ कम होते देख महाराज धनानंद मंद मंद मुस्कुराए और सेनापति मृत्युंजय की तरफ देखकर इशारा किया।
महाराज का इशारा पाते ही मृत्युंजय ने सैनिकों को वहां खड़े लोगों पट टूट पड़ने का आदेश दिया। घुड़सवार सैनिकों ने वहां खड़े लोगों पर कोड़े बरसाने शुरु कर दिए. देखते ही देखते लोगों की भीड़ अचानक तितर-बितर होना शुरु हो चुकी थी.
कुछ ही क्षणों में वहां से सम्पूर्ण भीड़ गायब हो चुकी थी. अब वहां बचे थे तो सिर्फ और सिर्फ आचार्य चणक. वहां से भागते लोगों को देख उनकी आँखें क्रोध में लाल थी. तब तक महाराज धनानंद के सैनिक उन्हें चारों तरफ से घेर चुके थे.
महाराज धनानन्द उसके सम्मुख आए और मुस्कुराए - "आचार्य चणक..."
वो ठहाका मारकर हंस पड़े - "आप तो राजनीतिशास्त्र के महान विद्वान हैं. आपकी टक्कर का विद्वान सम्पूर्ण मगध में कोई भी नहीं. परन्तु फिर भी आप राजनीति का इतना बड़ा पाठ कैसे भूल गए आचार्य ? आपको याद दिला दूँ आचार्य कि राजनीति में कान से सुनी बातें ही अंतिम सत्य होती है. आँखों से देखी बातें तो समय की प्रवाह के साथ बदलती रहती है."
तब आचार्य चणक बोले, "तुम एक शिक्षक को बंदी तो बना सकते हो धनानंद परन्तु उसके विचारों को बंदी नहीं बना सकते."
धनानंद हँसता हुआ बोला, "विचार...हा...हा...हा... विचार भी सत्ता के ही कैदी होते हैं आचार्य. विचार की धारा को भी आसानी से मोड़ा जा सकता है."
"यह तुम्हारी ग़लतफ़हमी है धनानंद. विचारों को ना ही कभी मोड़ा जा सकता है और ना ही कभी तोड़ा जा सकता है."
"परन्तु दबाया तो अवश्य जा सकता है ना आचार्य !" महामात्य राक्षस आचार्य चणक के पास आए और मुस्कुराते हुए कहा.
तब चणक बोले, "मुझे हमेशा से लगता था कि महामंत्री सत्तार के बाद महामात्य राक्षस ही मगध में एक ऐसे व्यक्ति हैं जो मगध को उत्तम दिशा की ओर ले जा सकते हैं, आंधी के विरुद्ध खड़े हो सकते हैं लेकिन मैं देख पा रहा हूँ कि आपने स्वयं आंधी के साथ ही बहना सीख लिया है."
"इसे कूटनीति कहते हैं आचार्य चणक. आंधी के सामने झुक जाना ही समझदारी है. आपने आंधी के विरुद्ध चलना चाहा, अब ना ही आप बचेंगे और ना ही आपके विचार." महामात्य मुस्कुराए और बोले.
तब आचार्य चणक बोले, "मेरे विचार मिट्टी में दबे उस बीज की तरह है जिसे कितनी भी गहराई में दबा दें, वो एक दिन अवश्य अंकुरित होगा. मैं रहूँ या ना रहूँ, परन्तु वो दिन भी अवश्य आएगा जब आपकी राजनीति और कूटनीति को फिर से मेरा सामना करना पड़ेगा. तब ना ही धनानंद की ये सत्ता रहेगी और ना ही ये नन्द वंश. उस दिन मैं आपको अवश्य याद आऊंगा महामात्य, अवश्य याद आऊंगा."
उनका इतना कहना था कि महाराज धनानंद ने अपने म्यान से तलवार निकाली और उनके गर्दन पर चला दी. उनका गर्दन धड से अलग हो गया. ये देखते ही महामात्य राक्षस चिल्लाये, "महाराज ये क्या किया आपने ? एक ब्रह्म हत्या ?"
महाराज धनानंद सांप की तरह फुफकारते हुए बोले, "बहुत बड़बोला था ये राजद्रोही. राजद्रोही की ना ही जाति होती है और ना ही धर्म."
महामात्य राक्षस भी जानते थे कि गलत हुआ है लेकिन महाराज धनानंद के गुस्से के सामने उनमें बोलने की हिम्मत नहीं थी. वहीं आचार्य चणक का कटा हुआ सर धूल में लोटने लगा था. धनानंद ने गुस्से से उनके कटे सर पर लात से प्रहार किया और फिर बोले, "इस राजद्रोही के शीश को इस बरगद के ऊपर लटका दो.ताकि यहाँ से गुजरने वाले मागध को पता चले कि राजद्रोह करने का अंजाम क्या होता."
महामात्य राक्षस बोले, "महाराज मुझे डर है कि कहीं ये फैसला मगध में विद्रोह का कारण ना बन जाए. मगध के आचार्य गण को ये स्वीकार्य नहीं होगा."
महाराज धनानंद गुस्से में बोले, "अगर उन्हें स्वीकार्य नहीं होगा तो उनपर भी राजद्रोह करने का अपराध लगेगा. ढिंढोरा पिटवा दो पूरे मगध में कि अगर किसी ने भी राजद्रोह करने का अपराध किया तो उसका हश्र चणक की तरह हो होगा."
इतना कहकर वो अपने घोड़े पर सवार हो राजमहल के लिए प्रस्थान कर गए. तब महामात्य राक्षस ने भी सेनापति मृत्युंजय को आचार्य चणक के शीश को बरगद के पेड़ पर टांगने का आदेश देकर वहां से खिसक गए.
आचार्य चणक के शीश को बरगद के पेड़ पर टांग दिया गया और सारे सैनिक वहां से चले गए. परन्तु फिर भी किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि चौराहे पर जाएँ. दूसरी तरफ बालक चाणक्य को दुसरे गाँव से लौटते हुए सन्धा हो गयी.
उसने जब पाटलिपुत्र में प्रवेश किया तो अपने अपने घरों के पास खड़े लोगों की नज़रों को उसने घूरते हुए पाया. वो समझ नहीं पा रहा था कि लोग उसे ऐसे घूरकर क्यों देख रहे हैं. वो चौराहे की तरफ ही बढ़ता जा रहा था.
तभी एक दरवाजे पर खड़े एक आदमी ने कहा, "देखो देखो राजद्रोही की इस औलाद को, कैसे सीना चौड़ा किए चला जा रहा है. इसे तनिक भी शर्म नहीं आ रही है."
आचार्य चणक को मृत पाने के बाद बालक चाणक्य क्या करेंगे ?
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