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prempratiksha

ประวัติ
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Synopsis

Chapter 1prempratiksha episode 1

       साफ-साफ तो नहीं लेकिन हल्की सी कानों को सुनाई देने वाली कबुतरों की गुटर-गूं की आवाजें ऊपर के गुंबद से आ रही हैं। आंखों के समक्ष घनघोर नहीं परंतु हल्के से अंधेरे की लालिमा दिखाई दे रही है। और उसी हल्के अंधेरे में चांद-सा चमकता चेहरा वीर का दिखाई देता है। चारों ओर सन्नाटा है,पर वीर का ह्रदय नगाड़े से भी अधिक नाद कर रहा है। जिसे वीर धड़कता हुआ महसूस कर सकता है। उसके चेहरे के भाव-दृश्यों की गिनती करना मुझे थोड़ा असंभव प्रतीत होता है। लेकिन उसका वर्णन मैं कर सकता हूं।

उस दूध से सफेद, मखमल से कोमल मुख पर असंतोष,गुलाब की पंखुड़ियों से भी गुलाबी होंठों पर अस्थिरता, मां भवानी के दिव्य स्वरूप का सा आभास कराती बड़ी-बड़ी आंखें, जिनमें जिज्ञासा की भरपूरता। माथे पर आई सलवटें पुर्णत: आश्चर्य का आभास करवा रहीं हैं। और मन की दशा से विस्मय साफ दिखाई देता है। वीर ने पिछले सत्रह वर्षों से जो धुंधले दृश्य अपने स्वपनो में देखे थे,वे आज क्रमबद्धता से याद के रुप में उसके सामने आ रहे हैं। इस समय वीर ऐसी अवस्था में है,जहां उसे यह समझ नहीं आ रहा कि ये दृश्य उसे क्यों दिखाई दे रहें हैं। किंतु उन दृश्यों का तात्पर्य उसे अवश्य समझ आ रहा है।जो उसके मन को विचलित कर रहें हैं। और इन्हीं सब के बीच दाएं तरफ से एक आवाज आती है...

    " जल्दी चल....हो गया ना तेरा! अगर चाबी वक्त पर वापस नहीं रखी तो बवाल हो जायेगा।"ये शब्द हर्ष के थे।

      हर्ष भारद्वाज....मुख से प्रतापी, बातों से प्रतिष्ठित, स्वभाव से संतोषी किन्तु आंखों से चातुर्यता साफ दिखलाई देती है।वीर एवं हर्ष दोस्त हैं और महाविद्यालय में साथ पढ़ते हैं। दोस्ती का ये सिलसिला शुरू होता है आज से तकरीबन डेढ़ महीने पहले,जब वीर पहली बार महाविद्यालय में आया था....

     01जुलाई,जगतबाडा़

     "हे भगवान लेट हो गया.... अब तक तो काऊण्टर  पर इतनी भीड़ हो गई होगी की क़दम रखने को भी जगह मिल जाये तो गनीमत। मेरी ही गलती है। सुबह घर से 10:00 के बजाय 9:30 बजे वाली बस में आना चाहिए था।" इतनी देर से बिना रुके बड़बड़ाये जा रहे ये होंठ किसी और के नहीं वीर के ही थे। और इस समय उसके होंठों से ज्यादा गति उसके कदमों की थी। लेकिन हर बात में नर्वस हो जाना तो जैसे आदत है हमारे वीर की.....।

       वीर आज पहली बार अपने काॅलेज जा है। और उसे काऊण्टर पर सिर्फ ये पुछना है कि पिछली कक्षा के एवं जरूरी डोक्यूमेण्टस् महाविद्यालय को कब जमा करवाने हैं। और इसी बात के लिए इतनी टेंशन ली जा रही है। लेकिन असल में टेंशन ये नहीं थी।ये घबराहट थी।आज वीर की कालेज का पहला दिन था।नये लोग होंगे, वहां कोई पुराना साथी नहीं होगा,नयी जगह,नये तौर-तरीके,नया माहौल होगा।ये सब सोच-सोचकर वीर को घबराहट हुए जा रही थी।जो शायद एक हद तक जायज़ भी थी।

     ये कॉलेज से कोई थोड़ी दूरी रही होगी की देवी बाईसा का कॉल आया। देवी बाईसा, वीर की मां। दृढ़निश्चय, साहस,संतोष व समझ का समुचित संगम। परिस्थितियों से डरना न कभी उन्होंने सीखा था ना अपनी संतान को सिखाया।

     "हां मम्मा,मम्मा मैं बस कॉलेज पहुंचने ही वाला हूं। रास्ते में हूं। कुछ काम था क्या?"

     और सामने से मृदुल स्वर में एक दृढ़ आवाज आई.....

    "काउंटर पर पूछ लेना कि दो साल पहले की मास्टर ऑफ आर्ट्स की डिग्री आई है या नहीं। और हां आते वक्त मार्केट से सब्जियां भी लाना।"

  "ओके मम्मा...."

     इतना कहकर वीर ने कॉल काट दिया। देवी बाईसा उच्च शिक्षा प्राप्त करके अब सहकारी विद्यालय में अध्यापिका हैं। जिस समय देवी ने अध्यापक पद हेतु परीक्षा उत्तीर्ण की थी, तब समाज के लोगों ने बहू के कार्य करने पर बड़ी आपत्ति जताई थी। किंतु वीर के पिता राजेंद्र सिंह राजपूत समय के साथ आगे चलने वाले व्यक्ति थे।आज से 10 साल पहले ही उन्होंने अंदाजा लगा लिया था कि आने वाले समय में नौकरी की क्या अहमियत होने वाली है। और बिल्कुल ऐसा ही हुआ। क्योंकि ये परिवर्तन का दौर था। और जिसने समय को भांप लिया वे जीवन में सफल मार्ग को प्राप्त कर गए।

      कॉल काटने के बाद वीर कॉलेज के द्वार तक पहुंच गया था। आज कॉलेज का पहला दिन था, इसीलिए आए विद्यार्थियों की संख्या काफी कम थी। मुश्किल से 50-60 रही होगी। ऐसा इस कारण से भी था क्योंकि कॉलेज अभी केवल स्नातक शिक्षा के प्रथम वर्ष के विद्यार्थियों के लिए आरंभ हुई थी। इतना ही नहीं, अभी कॉलेज में केवल वे विद्यार्थी थे जिनका नाम पहली ऐडमिशन कट ऑफ सूची में आया था। ये 50-60 विद्यार्थी वहीं थे जो पूरे कॉलेज परिसर में दिखाई दे रहे थे। जिनमें से आधे से ज्यादा केवल अपने डाक्यूमेंट्स जमा करवाने आए थे और काउंटर पर लाइन बनाकर खड़े थे।कुछ लड़के कॉलेज के मुख्य द्वार की आगे हुड़दंग बाजी कर रहे थे। और कुछ उद्यान परिसर की बेंच पर बैठकर ठिठोली कर रहे थे। और इनमें से आधे तो ऐसे थे जिनका महाविद्यालय में प्रवेश ही नहीं है, वे केवल यूं ही मजे लेने के लिए यहां आए हुए थे। और ये 50-60 विद्यार्थी फालतू थे। इन सब को चीरते हुए वीर कॉलेज के अंदर गया।

      अंदर का कॉलेज बाहर से काफी भिन्न था। यही कोई 6-7 अध्यापक एवं 12 से 15 कुल विद्यार्थी। जिनमें 7-8 लड़कें एवं अन्य लड़कियां। ये वे विद्यार्थी थे जिनका घर पर टिकना मुश्किल है,और जिन्होंने तीन महीने की अवकाश को बड़ी मुश्किल से घर बिताया था। ये वे विद्यार्थी थे जो किसी भी हालत में पूरे साल भर कॉलेज से अवकाश नहीं लेने वाले थे। क्योंकि इनका घर पर बिल्कुल मन नहीं लगता। और इन्हीं विद्यार्थियों की सूची में वीर था।

      वीर आगे बढ़ा और सामने कुर्सी पर बैठे एक अध्यापक से पूछा...

   "सर,आर्ट्स ग्रुप 'k' की कक्षाएं.....??"

   "बेटा अभी कॉलेज का कोई भी कार्य सुचारू रूप से शुरू नहीं हुआ है।अधिकांश अध्यापक भी अभी नहीं आए हैं। और अधिक जानकारी के लिए कमरा नं. 17B में जाओ। वहां भूगोल के अध्यापक प्रो. कृष्ण बैठे हैं। शायद वह कुछ बता दें।"

       "थैंक्स सर"

  वीर ने कहा और वहां से आगे निकल आया। उसे वहां चारों तरफ कमरे ही कमरे दिखाई दे रहे थे। और इनमें से 17B कमरा कहां था वीर को कुछ पता नहीं था। फिर भी ढूंढते-ढूंढते वो वहां पहुंचा। ये कॉलेज के ग्राउंड फ्लोर पर पिछली तरफ था। वीर कमरे की तरफ बढ़ ही रहा था तभी उसे तीन लड़कों ने रोका। इस कॉलेज में आए वीर को तकरीबन 10-15 मिनट हो गए थे, लेकिन किसी ने भी सामने से आकर 'हाय-हेल्लो' तक नहीं किया था। जब उन तीन लड़कों ने वीर को पुकारा तो वीर ने भी उनका अभिवादन किया। और उनमें से एक लड़का निक्की बोला....

    "और सुना भाई! प्रो. कृष्ण के पास जा रहे हो?"

     "हां" वीर उन्हीं के साथ बरामदे की आधी दीवार पर बैठ गया।

   "हम भी जा कर आए थे। कृष्ण बोला बेटा अभी कुछ तय नहीं किया है। 6-7 दिन बाद कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर नोट चिपका देंगे।"दूसरा लड़का बोला और हेल्लो बोलने के लिए हाथ आगे बढ़ाया। वीर ने हाथ मिलाते हुए कहा.....

  "थैंक यू बताने के लिए,आपका नाम?"

  "आकाश"

    तभी पहले वाले लड़के ने हाथ मिलाया

"और मैं नितिन, बट यू कैन कॉल मी निक्"

     "आप भी आर्ट्स से हो??"वीर ने पूछा तो आकाश ने जवाब दिया....

  "मैं और निक्"फिर तीसरे लड़के की तरफ इशारा करके कहा"ये साइंस से है, हर्ष भारद्वाज"

       हर्ष तब से चुप ही था। अब भी जब उसकी बात की जा रही थी तो उसने आकाश को एक हल्की सी स्माइल दी। और न वीर को सीधी नजरों से देखा न हाथ मिला कर उसका अभिवादन किया।

    वीर की मुंह से भी आकाश से हर्ष का नाम सुनकर यकायक निकल गया.....

    "हर्ष......"हालांकि ये स्वर इतना धीमा था कि किसी को सुनाई नहीं दिया।

       वीर को हर्ष का यह बर्ताव कुछ अजीब लगा। लेकिन हर्ष ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी तो वीर ने भी कुछ बोलना जरूरी नहीं समझा। लेकिन नजरें दोनों की जमीन पर थी।और ये क्यों हो रहा था, दोनों को ही नहीं समझ आ रहा था।

"तो अब..... मैं यहां क्या करूं? मेरी तो बस भी दोपहर 1:00 बजे आएगी।"

     आकाश "तुझे तो 15 मिनट ही हुए हैं आए को..... हमें आधा घंटा हो गया है।और जहां से हम आते हैं वहां तो बसें भी हर 15 से 20 मिनट में जाती रहती हैं। फिर भी हम एक बजे जाएंगे।"

   वीर "वो तो है यार, मेरा भी कुछ ऐसा ही हाल है। तीन महीने कैसे काटे हैं घर रहकर.... मैं ही जानता हूं।"

       तभी इतनी देर से चुप्पी साधे खड़ा हर्ष बोला...

        "यार आकाश, चलता हूं भाई। कुछ काम है।" और इतना कहकर हर्ष कॉलेज के गार्डन की तरफ चला गया।

  वीर "ये बोलते भी हैं.....?" ये बात प्रश्नात्मक ढंग से नहीं व्यंग्यात्मक कटाक्ष के माध्यम से कही गई थी।

आकाश "बोलता है ना, क्यों नहीं बोलता।"

तभी निक् बोला "अक्की चल लाइब्रेरी की तरफ चलते हैं।"

      "तुम चल रहे हो??"आकाश ने चलते-चलते वीर से पूछा.....

    "सॉरी, मुझे मार्केट में भी जाना है। कुछ काम है।"

    "क्या काम है??"

    "मम्मी ने कुछ घर का सामान मंगवाया है।"

निक् "तो जाते टाइम ले लेना यार! अभी तो ग्यारह बजे हैं।"

      वीर "ओके.... बट तुम लोगों को कैसे पता की लाइब्रेरी किधर है? तुम भी तो आज ही आए हो ना?"

आकाश "बेटे तेरे आने से पहले आधा घंटा हम तीनों ने यही किया है। पूरी कॉलेज के चक्कर लगा डाले।"अब वह तीनों साथ में चलने लगे थे। और तभी नितिन बोला.....

      "मैं और हर्ष इसी साल आए हैं।यह आकाश पहले से अपनी एक साल इस कॉलेज में बर्बाद करके बैठा है।"

    "मतलब आकाश सेकंड ईयर में है?"

आकाश "नहीं रे... मैं पहले बी.एससी. मे था। और अब बी.ए. कर रहा हूं।"

   वीर "ओह! अच्छा, समझ गया।"

  निक् "वैसे तेरा नाम क्या है? तेरा नाम तो पूछा ही नहीं हमने"

     "मेरा....? वीर....., वीर राजपूत।"

अब तक वे तीनों लाइब्रेरी के पास पहुंच गए थे। लाइब्रेरी ना ज्यादा बड़ी थी तो ना ज्यादा छोटी। बहुत सी बुक सेल्फ थी।और एक तरफ लड़कियों के बैठने की टेबल्स थी,दूसरी तरफ लड़कों की। उस समय लाइब्रेरी में कोई नहीं था, सिवाय पुस्तकालय कर्मी के अलावा। वो तीनों वहां जाकर बैठ गए। लेकिन बातों का सिलसिला यूं ही जारी रहा। निक् ने पूछा.....

         "कहां से आते हो?"

    "रजाड़ा से, यहीं जगतबाड़ा के निचले हिस्से में पड़ता है।"

आकाश "जानते हैं।रजाड़ा को कौन नहीं जानता!पूरे जगतबाड़ा में एक वहीं तो जगह है जो जगतबाड़ा में होते हुए भी इससे अलग है"

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