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भाग 2: आंतरिक संघर्ष की शुरुआत

महादेव अब किशोरावस्था में प्रवेश कर चुका था। उसके भीतर का सवालों का ज्वार दिन-ब-दिन तीव्र होता जा रहा था। बचपन की मासूमियत कहीं खो चुकी थी, और अब उसकी आँखों में जीवन के प्रति एक नई समझ उभरने लगी थी। गाँव के अन्य लड़कों की तरह वह भी खेतों में काम करता था, पर उसकी आँखों में एक अजीब सी बेचैनी और दिल में अनजाने प्रश्न मंडराते रहते थे।

महादेव का मन अक्सर आस-पास के प्राकृतिक सौंदर्य में खोया रहता। गंगा नदी के किनारे बैठकर वह बहते पानी को देखता और सोचता, "क्या यह जीवन भी इसी नदी की तरह है? बस बहते जाना, बिना किसी ठहराव के?" उसकी माँ ने उसे एक साधारण जीवन जीने की शिक्षा दी थी, जिसमें परिवार का पालन-पोषण, खेतों में काम, और भगवान की पूजा शामिल थे। लेकिन महादेव को यह सब कुछ अधूरा लगता था। उसे ऐसा लगता जैसे वह किसी अनजानी राह पर खड़ा है, जिसकी दिशा उसे खुद भी नहीं पता थी।

गाँव के बुजुर्गों से उसने सुना था कि आत्मज्ञान की प्राप्ति से ही जीवन का सच्चा अर्थ समझ में आता है। लेकिन यह आत्मज्ञान क्या है और उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है, यह महादेव को स्पष्ट नहीं था। वह अपने भीतर के इस द्वंद्व से जूझ रहा था। एक ओर उसे परिवार की जिम्मेदारियों का एहसास था, तो दूसरी ओर उसकी आत्मा किसी अज्ञात सत्य की ओर खींची चली जा रही थी।

इन्हीं दिनों महादेव की मुलाकात गाँव के एक वृद्ध सन्यासी, शिवानन्द से हुई। शिवानन्द गाँव के बाहर स्थित एक छोटे से मंदिर में रहते थे और साधारण जीवन जीते थे। वह गाँव के लोगों के बीच अपने ज्ञान और साधना के लिए जाने जाते थे। एक दिन महादेव ने हिम्मत जुटाई और उनके पास जाकर अपने मन की व्यथा साझा की। शिवानन्द ने उसकी बातें बड़े धैर्य से सुनीं और मुस्कुराते हुए कहा, "तुम्हारी यह बेचैनी ही तुम्हारे ज्ञान की यात्रा का पहला कदम है, महादेव। संसार के हर जीव के भीतर यह प्रश्न छिपा होता है, परंतु कुछ ही लोग इसे पहचान पाते हैं।"

शिवानन्द के ये शब्द महादेव के लिए जैसे एक दीपक की तरह थे, जिसने उसकी अंधेरी राह में थोड़ी-सी रोशनी बिखेरी थी। लेकिन महादेव का मन अभी भी शांत नहीं हो पाया था। वह जानना चाहता था कि यह यात्रा कैसे शुरू की जाए, और कैसे वह उस अनजाने सत्य को प्राप्त कर सके, जिसकी उसे तलाश थी।

गाँव में साधारण जीवन जीते हुए भी महादेव का मन वहाँ नहीं लगता था। घर में वह अपने कर्तव्यों को निभाता था, परंतु उसके भीतर एक अनदेखा और अज्ञात संसार बसता था। उसे न किसी चीज़ का मोह था, न किसी चीज़ का आकर्षण। उसे लगता था कि वह इस संसार से अलग है, जैसे उसका यहाँ कोई स्थान ही नहीं है।

महादेव का यह आंतरिक संघर्ष उसके जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका था। उसने कई बार यह सोचा कि वह सब कुछ छोड़कर कहीं दूर चला जाए, जहाँ उसे शांति मिल सके, परंतु उसका कर्तव्य-बोध उसे रोक लेता था। वह जानता था कि उसे अभी इस संसार में रहकर अपने कुछ दायित्व निभाने हैं। यह द्वंद्व उसे भीतर ही भीतर जलाता जा रहा था, और वह धीरे-धीरे एक ऐसी स्थिति में पहुँच रहा था जहाँ उसे खुद समझ नहीं आ रहा था कि वह किस दिशा में जाए।

महादेव का यह आंतरिक संघर्ष उसकी आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत थी।

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