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उसने कहा कुछ भी नहीं. दिल, दर्द से भर उठा. उस दर्द को उसने घर आ अपने मम्मी-पापा को बताया. उसकी माँ नरम दिल और कमजोर हृदय की भी थी. वह अपने बेटे के दर्द को महसूस कर रही थी. उसने बावळे को तुरंत फोन करने का फैसला किया. उसने बावळे को फोन करके कहा

"अपने बेटे से अच्छा व्यवहार किया करें और ना मारें."

बस करण की माँ से यहीं गलती हो गई. न जाने करण की माँ की आवाज़ ने बावळे पर क्या जादू किया. बावळा शादीशुदा और दो बच्चों का बाप होते हुए भी करण की माँ से प्यार कर बैठा. वह नहीं जानता था कि करण की माँ आशा भी 3 बच्चों की माँ है, भरे पूरे परिवार से हैं. आशा इस सबसे अनजान थी. उसे इस बात का कुछ भी पता न था.

कुछ दिन पश्चात् कला-उत्सव के लिए उनके नाटक "खेजड़ी की बेटी" का चयन हुआ. 10-12 बच्चों का जाना तय हुआ. बावळे का बेटा भी जा रहा था.

एक दिन कला-उत्सव में भाग लेने हेतु सब जाने वाले थे. विद्यालय में सब अलसुबह इकट्ठा हुए. आशा भी करण को विद्यालय में दिल्ली कला उत्सव जाने हेतु लेकर गई. वही पहली बार उसने बावळे को देखा. परिचय तो ना हुआ मगर आशा सबकी बातचीत से जान गई कि बावळा वही है. केवल नमस्कार के अलावा आशा और बावळे में कोई बातचीत नहीं हुई. बस के आने में देरी होती जा रही थी. धीरे-धीरे सब अभिभावक अपने-अपने बच्चों को विद्यालय में छोड़कर घर चले गए. आशा बेटे के मोह के वशीभूत वहीं रही. उसके पति और दो बच्चे घर आ गए. आशा करण के पास ही रही. दिन के 10:00 बज चुके थे. तभी बावळे और आशा का सामना हुआ. आशा और बावळे के बातचीत शुरू हुई. तभी आशा को पता चला कि बावळा कला उत्सव में सबके साथ नहीं जा रहा. यह जान ना जाने क्यूँ आशा परेशान हो गई.

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