उपन्यास "एक संन्यासी ऐसा भी" को हम तीन प्रमुख वर्गों और उनके अंतर्गत आने वाले विभिन्न भागों में विभाजित कर सकते हैं। यह विभाजन कहानी को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करने में सहायक होगा और पाठकों को महादेव की यात्रा को समझने में मदद करेगा। वर्ग 1: प्रारंभिक जीवन और आत्मिक जिज्ञासा इस वर्ग में महादेव के बचपन और उसके मन में आत्मज्ञान की खोज की शुरुआत का वर्णन है। यह भाग महादेव की जिज्ञासा, प्रश्नों और संघर्षों पर केंद्रित होगा। भाग 1: बचपन और परिवार - गाँव की पृष्ठभूमि और महादेव का परिवार - माँ के साथ महादेव का संबंध - बचपन की मासूमियत और प्रारंभिक जिज्ञासाएँ भाग 2: आंतरिक संघर्ष की शुरुआत - महादेव का अन्य बच्चों से अलग होना - गाँव में साधारण जीवन और महादेव का उससे अलग दृष्टिकोण - शिवानन्द से पहली मुलाकात और आध्यात्मिकता की पहली झलक भाग 3: युवावस्था और आकर्षण - गंगा के प्रति महादेव का आकर्षण और आंतरिक द्वंद्व - घर और समाज की जिम्मेदारियों का दबाव - ईश्वर और भक्ति के प्रति बढ़ता रुझान वर्ग 2: आध्यात्मिक यात्रा और संघर्ष इस वर्ग में महादेव की आत्मिक यात्रा, भटकाव, और उसके संघर्षों का वर्णन है। यह भाग उसकी साधना, मानसिक उथल-पुथल, और आंतरिक शक्ति की खोज को उजागर करेगा। भाग 4: आत्मज्ञान की खोज - तीर्थ यात्रा और विभिन्न साधुओं से मुलाकात - आत्मा की गहन खोज और ध्यान - प्रकृति के साथ एकात्मता का अनुभव भाग 5: मोह-माया से संघर्ष - स्त्री आकर्षण के विचार और उनका दमन - घर वापस लौटने की कोशिश और मोह-माया के जाल में फँसने की स्थिति - साधना में बढ़ती हुई गहराई और आध्यात्मिक अनुभव भाग 6: आंतरिक चेतना का उदय - महादेव का अंतर्द्वंद्व और आत्मिक साक्षात्कार - ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण - शारीरिक और मानसिक थकावट का अनुभव वर्ग 3: मोह-मुक्ति और आत्मसमर्पण यह वर्ग महादेव के आत्मज्ञान प्राप्ति और मोह-मुक्ति के पथ को दर्शाता है। इसमें उनके कर्तव्यों का निर्वाह, संसार से दूरी, और अंत में संन्यासी के रूप में पूर्ण समर्पण का वर्णन होगा। भाग 7: कर्तव्य का निर्वाह - परिवार के प्रति अंतिम कर्तव्यों की पूर्ति - सामाजिक जिम्मेदारियों से मुक्ति - आध्यात्मिक जीवन की ओर संपूर्ण समर्पण भाग 8: अंतिम मोह-मुक्ति - महादेव का मोह और तृष्णा से पूरी तरह से मुक्त होना - अपने जीवन को पूर्ण रूप से संन्यास में समर्पित करना - जीवन के अंतिम समय में ईश्वर में विलीन होने की तैयारी भाग 9: आत्मज्ञान की प्राप्ति - महादेव का आत्मज्ञान और अंतिम यात्रा - भौतिक जीवन का अंत और आत्मा का मोक्ष - संन्यासी के रूप में महादेव का जीवन-समाप्ति समाप्ति: उपन्यास के अंत में महादेव के संन्यास, आत्मसमर्पण, और उसकी अंतिम यात्रा को दर्शाया जाएगा। यह भाग पाठक को एक गहरी सीख देगा कि भौतिकता से मुक्त होकर, आत्मज्ञान की ओर बढ़ना कितना कठिन है, परंतु यह वह मार्ग है जो हमें मोक्ष की ओर ले जाता है। विशेष नोट: प्रत्येक वर्ग और भाग में भारतीय समाज और संस्कृति का चित्रण प्रमुख रहेगा। महादेव की यात्रा को एक आम व्यक्ति के दृष्टिकोण से देखा जाएगा, जिससे पाठक आसानी से उससे जुड़ सकें।
धुंधलके से भरी सुबह थी। गाँव के कच्चे रास्तों पर ओस की बूँदें धरती को गीला कर रही थीं। नीले आसमान के नीचे हरियाली के बीच बसा यह गाँव, साधारण जीवन का प्रतीक था। पेड़ों के झुरमुटों के बीच से गुजरते हुए महादेव ने अपने घर की ओर देखा। मिट्टी की दीवारें और छप्पर की छत वाला वह घर, बाहर से तो साधारण दिखता था, लेकिन अंदर से महादेव के लिए यह घर एक गहरी उदासी का प्रतीक था। वह अक्सर इस घर को देखता, लेकिन उसे कभी यह घर जैसा महसूस नहीं हुआ।
महादेव का जन्म इसी गाँव में हुआ था। उसके पिता का देहांत तब हो गया था जब वह बहुत छोटा था। उसकी माँ ने उसे पाला-पोसा, और महादेव को अपने जीवन की सबसे बड़ी जिम्मेदारी माना। गाँव के अन्य बच्चों की तरह महादेव भी खेतों में दौड़ता, नदी किनारे खेलता, लेकिन उसके मन में कुछ और ही चल रहा था। उसे दुनिया की भौतिकता में कोई रस नहीं था। उसकी माँ, जो उसे संसारिक जीवन के नियम सिखाने की कोशिश करती थीं, अक्सर उसकी उदासीनता को देखकर चिंतित हो जातीं।
माँ ने हमेशा चाहा कि महादेव एक सामान्य जीवन जिए। उसे खेती करना सिखाया, गाय-भैंसों का ख्याल रखना सिखाया, लेकिन महादेव के लिए यह सब बाहरी संसार था। उसके भीतर एक अलग ही संसार था, जिसमें वह सदा खोया रहता। वह अक्सर सोचता, "यह जीवन इतना छोटा और क्षणिक क्यों है? क्या इसके परे भी कुछ है?"
गाँव के बड़े-बूढ़े लोग महादेव के बारे में बातें करते, "यह लड़का साधारण नहीं है। यह तो किसी गहरे सत्य की खोज में है।" लेकिन महादेव को उनकी बातों का कोई असर नहीं होता। वह खुद को हर दिन एक नई उलझन में पाता। उसे हमेशा ऐसा लगता जैसे वह इस दुनिया में होकर भी इस दुनिया का नहीं है।
उसकी माँ उसे कई बार मंदिर ले जातीं, गाँव के साधुओं से मिलवातीं, लेकिन महादेव का मन कभी स्थिर नहीं हो पाता। उसे ऐसा लगता कि यह सब उसकी तलाश का हिस्सा नहीं है। उसकी माँ अक्सर उससे कहतीं, "महादेव, जीवन में कुछ करना है तो ध्यान लगाना सीखो। ईश्वर की भक्ति करो।" महादेव उनकी बात सुनता, परंतु वह जानता था कि उसकी भक्ति और ध्यान कुछ अलग है। वह सिर्फ मंदिर में बैठकर भगवान के सामने हाथ जोड़ने तक सीमित नहीं था; वह उस सत्य की खोज में था जिसे किसी ने देखा नहीं, महसूस किया नहीं।
एक दिन गाँव में एक वृद्ध सन्यासी, शिवानन्द आए। उनकी लंबी सफेद दाढ़ी, चमकती आँखें, और शांत मुद्रा ने महादेव को आकर्षित किया। वह शिवानन्द के पास गया और उनसे पूछा, "बाबा, इस जीवन का सत्य क्या है? मैं कुछ ढूँढ़ रहा हूँ, पर समझ नहीं पा रहा कि वह क्या है।"
शिवानन्द मुस्कुराए और बोले, "बेटा, सत्य न तो बाहर है और न ही किसी मंदिर में। वह तुम्हारे भीतर है। उसे ढूँढ़ने के लिए तुम्हें अपने भीतर की यात्रा करनी होगी। जब तुम खुद को जानोगे, तभी तुम सत्य को समझ पाओगे।" महादेव ने यह सुना और उसकी आँखों में एक नई चमक आ गई। उसे लगा कि वह अपने मार्ग के एक कदम और करीब आ गया है।
लेकिन यह यात्रा आसान नहीं थी। महादेव का घर, उसकी माँ, और समाज की जिम्मेदारियाँ उसे बाँध रही थीं। वह चाहकर भी इस यात्रा पर तुरंत नहीं जा सकता था। वह जानता था कि उसे अपने कर्तव्यों को निभाना होगा, लेकिन उसके भीतर की बेचैनी उसे लगातार खींच रही थी।
महादेव का यह आंतरिक संघर्ष उसकी माँ के लिए एक पहेली बना हुआ था। वे उसे देखतीं, उसके उदास चेहरे को पढ़ने की कोशिश करतीं, पर समझ नहीं पातीं कि उनके बेटे के मन में आखिर क्या चल रहा है।