यह कहानी एक सच्ची घटना से प्रेरित है जिसमें कहानी के एक पात्र का ही इसे लिखने के लिए प्रोत्साहित करने में योगदान रहा है. यह पूर्णतः हूबहू वैसी नहीं है लेखिका ने कुछ काल्पनिक बदलाव भी किए हैं और काल्पनिक भाव भी समाहित किए हैं.
25 मार्च का दिन था. सखी ने बावळे को कहा
"जयपुर घूमना है."
बावळा उसे शहर घुमाने के लिए तैयार हो गया. अपने मन की पवित्रता को वो स्वयं ही जान सकता था किंतु सखी, उसके पति व बच्चों को बाहर घुमाने ले जाते समय अपनी पत्नी का चेहरा देखकर डर सा गया. उसने, उसके सामने हाथ जोड़ते हुए कहा
"तू क्या चाहती है मुझसे, जो ऐसा चेहरा बना रखा है."
पत्नी ने अपने दर्द को छुपा लिया किंतु चेहरे पर आए वितृष्णा के भावों को ना छुपा सकी. वह आंखें तरेरती हुई रसोई में बर्तन साफ करने लगी. वह भी फर्राटे से घर से बाहर निकल ड्राइवर की सीट पर जा बैठा और सखी व अन्य के बैठने का इंतजार करने लगा. सखी उसके उखड़े मूड को देखकर सब समझ गई पर कुछ ना बोली. चुपचाप सब गाड़ी में सवार हो घूमने निकल गए. इधर सुमन कुढ़ती हुई घर के कामकाज में अपने आप को व्यस्त रखने की कोशिश करने लगी. कभी क्रोध करती, कभी फूट-फूटकर रो पड़ती .पति द्वारा किए गए अपमान को सहन नहीं कर पा रही थी. उसका मन किया कि वह घर छोड़कर चली जाए किंतु दोनों जवान लड़कों को छोड़कर जाना उसका दिल गवारा न समझ रहा था. सुमन अपनी सहेली के साथ फोन पर बात कर गम-गलत करने की चेष्टा करने लगी. सहेली द्वारा
"आज की ही बात है फिर तो वह चली जाएगी."