खाकर ठोकरें वक्त की,फिर सम्हल रहा हूँ
अब तो मुस्कुरा ज़िन्दगी, कि बदल रहा हूँ|
हक़ीक़त-ऐ-ज़िन्दगी ने छीन लिया बचपन
अधूरी ख्वाहिशों की मानिंद मचल रहा हूँ|
जब से जाना, शाम-ऐ-मंज़र शौक उनका
खुशियों की खातिर, सूरज सा ढल रहा हूँ|
ढूंढ लिया है उन्होंने, नया आफ़ताब कोई
फिर, चिरागों सा राहों में क्यों जल रहा हूँ|
सोचा था, तौबा कर लेंगे मोहब्बत से अब
जब से देखा तुझे, कौल से फिसल रहा हूँ|
है पहरा दरवाजों पर खुदगर्ज निगाहों का
संग वफ़ा के मैं खिड़की से निकल रहा हूँ|
होना है क्या अंजाम, ये जानता है 'मोहिउद्दीन'
सफर खूबसूरत है, इसीलिए चल रहा हूँ|