2 बचपन की त्रासदी

मूर्ति की तभीयत मे सुधार आने लगा, वो अब सामान्य लड़कियों की तरह जीवन यापन करने लग गयी। हँसते खेलते दोनों बहनें बड़ी होने लगी। लक्ष्मी का रंग हल्का दबा हुआ था और मूर्ति का रंग गेहुँया गोरा था। पर दोनों बहनों मे कभी भी लड़ाई झगड़ा जैसा कुछ नहीं था, दोनों आपस में एक दूसरे के कपड़े पहन लेते, और दोनों मे काबिल ए तारीफ समंजन हुनर थी। समय के साथ साथ दोनों बढ़ते गए, और देखते ही देखते समय का हाथ पकड़ कर दोनों अब 6 साल की हो गयी थी। दोनों साथ मे खूब मस्ती करते, हँसी मज़ाक चलता और पूरा घर चहकती। पढ़ाई में भी दोनों बहनें बहुत तेज़ थी। जैसे ही दोनों 6 साल के हुए तो जनवरी के महीने मे उनका जन्मदिन बेहद धूमधाम से मनाया गया। ढेरों लोग, तोहफे, गाने, मनोरंजन आदि की व्यवस्था की गई। इन्ही सब चकाचौंध में लीन हुआ पड़ा था पूरा परिवार, आने वाला समय किस मोड़ पर लाकर खड़ा करेगी इसका अंदाज़ा नहीं था किसीको, समय के साथ उड़ान भरते भरते दोनों दूसरी कक्षा में बहुत अव्वल अंको के साथ उत्तीर्ण हुए।

समय का काँटा सितंबर के महीने मे जाकर ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ी कर दी जहां पर शायद ही कोई जाना चाहेगा। समय था अर्धवर्षीय परीक्षाओं की, और दोनों बहनों ने दो परीक्षाएं ही दी थी के अकस्मात् नियति ने अपनी चाल चली। लक्ष्मी बहुत बीमार पड़ गयी, शुरुवात एक पेट दर्द से हुआ, फिर रात्रि में तेज़ बुखार और कंपन। सुबह की पहली किरण के साथ ही मूर्छित अवस्था मे लक्ष्मी को अस्पताल ले जाया गया। तुरंत सभी चिकित्सक लग गए, पर फिर भी किसी तरह का निष्कर्ष नहीं निकल पा रहा था। लक्ष्मी को क्या हुआ, कैसे हुआ यही सब समझने और सुलझाने का प्रयास जारी रहा, लेकिन शायद लक्ष्मी के हाथ में नियति ने अधिक समय नहीं दे रखा था। पलक झपकते ही उस छोटी सी बच्ची की साँसें तेज़ होने लगी, और वो छटपटाने लगी, दिल की धड़कनें अश्वगति से धड़कने लगी। सारे उपस्थित लोग एकाएक डर गए। शीघ्र ही उसे ICU मे ले जाया गया और वहां कुछ थोड़े पलों के अंदर देखते ही देखते लक्ष्मी ने दम तोड़ दिया। एकाएक जैसे सूरज की किरणें बदलो मे छिप गया और पूरा गगन तिमिर हो गया। जब लक्ष्मी की माँ ने ये खबर सुनी तो दौड़ती हुई लक्ष्मी के अचल शब के पास जाकर खड़ी हो गई। उस समय उस माँ को होश भी नहीं रहा कि वो नग्न चरण दौड़ रही है और नीचे उनके एक काँच का टुकड़ा पड़ा है, शरीर से खून प्रवाह हो रही है लेकिन माँ का प्यार और खिंचाव कहा किसी दर्द के आगे झुक सकता है?

लक्ष्मी को क्षण भर के अंदर एक सफेद कपड़े से ढक दिया गया, और उस बेबस माँ के पास कोई विकल्प नहीं। वो बिलख बिलख के रो रही थी और कुछ पल बाद वो भी बेहोश हो कर गिर पड़ी। उस पिता की स्थिति का वर्णन भी नहीं किया जा सकता था क्योकि उस माँ की प्रतिक्रिया दृश्य था मगर उस पिता की मानसिक स्थिति का अनुमान शायद ही कभी कोई लगा पाए। इंसानी प्रक्रियाएं भी विचित्र है, कुछ जो दृश्य है और कुछ जो अदृश्य लेकिन दोनों ही हाल में इंसान अंदर से पूरी तरह टूट जाता है।

लक्ष्मी के मृत शरीर को आग लगाने आए तो कौन?? उधर मूर्ति अपने बहन के हालातों से अनजान घर पर अकेली तड़प रही थी घरवालों के लिए। उस नन्ही सी जान को तो दूर दूर तक अनुमान नहीं के उसकी बहन, सखी और सबसे करीबी इंसान इतनी सी ही उम्र मे उसे छोड़ कर चली गई।

उसी शाम जब पंडित जी ने सारे क्रियाकर्म किया तो उसके पिता के हाथ थरथराने लगे। एक पिता माता के लिए अपने फूल सी बच्ची को अग्नि देना असंभव होता है।

घर पे बिल्कुल सन्नाटे वाला माहोल, ऐसा लग रहा था जैसे शरीर का कोई एक अंग पृथक हो गया हो।

मूर्ति को अब तक सच नहीं बताया गया क्योंकि वो दोनों खुद ही इस हालात मे नही के खुद को संभाल सकें ऊपर से मूर्ति को बता दिया तो उसे कैसे संभालेंगे? मूर्ति भी बड़ी जिद्दी, उसे ये देख कर अच्छा नहीं लगा कि उसके माता पिता आ गए पर लक्ष्मी साथ नहीं आई। मूर्ति को अनजाने में ही गुस्सा आ रहा था और वो चिड़चिड़ी सी रहने लगी।

करीब दो से तीन दिनों बाद, जब मूर्ति की धैर्य का बांध टूटा तब वो चिल्लाने लगी, अजीब सी रहने लगी, डांट पड़ती तो थोड़ी सहम जाती पर कुछ पल बाद फिर आती। उस अकेली बच्ची का भी कहाँ मन लग रहा था? वो तो अकेले अकेले ही लक्ष्मी का नाम लेती और खेलती रहती, ये देख कर उसके माता पिता को और बुरा लगता। करीब हफ्ते भर बाद जब उनके माता पिता को लगा कि अब वो मूर्ति को संभालने लायक है तब उन्होने सच्चाई बोलने की ठानी पर मूर्ति के चाचा ने सुझाव दिया कि इस वक़्त मूर्ति बहुत छोटी है और उसके दिमाग पर बुरा असर पड़ेगा क्यों कि उस बच्ची को तो मृत्यु का अर्थ भी नहीं पता होगा। इन्ही सब गहन आलोचना के पश्चात सबने एकत्र निर्णय लिया कि कुछ ऐसा कहें जिससे मूर्ति के मानसिकता पर असर ना पड़ें और वो अकेले रहने की आदत डाल लें। तो सबने उससे कहा कि लक्ष्मी मौसी के साथ उनके घर गयी और कुछ दिन वही रहेगी। मूर्ति ने बड़े मासूमियत से पूछा, 'क्या लच्छमी को मेले चाथ नहीं रहना?' माँ के नयन जल से भर गए और उन्होने बड़ी मुश्किल से खुद को संभालते हुए कहा के, 'बेटा, लक्ष्मी थोड़ी बीमार है और मौसी जी के वहा उसका इलाज़ होगा और तब तक वो वही रहेगी और पढ़ाई करेगी " मूर्ति को मना पाना इतना आसान कार्य नहीं था पर करना तो था। तकरीबन एक महीने तक, मूर्ति ऐसे ही रहने लगी बीच बीच मे कभी कभार लक्ष्मी से मिलने की ज़िद करती, कभी रोती बिलखती लेकिन फिर उसे खिलौनों से बहला दिया जाता और वो चुप हो जाती। इसी प्रकार मूर्ति की जीवन की शुरुआत हुई।

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